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प्रथम अध्याय अप्रिय आदि बचन कभी नहीं कहता, वही सद्री अर्थात् सत्य व मधुर बचन कहनेवाला कहलाता है।
त्रिवर्ग अर्थात् धर्म अर्थ काम । जिससे अभ्युदय अर्थात् देवेंद्र नागेंद्र चक्रवर्ती आदि पद और निःश्रेयस अर्थात् मोक्षपदको सिद्धि होती है उसे ' धर्म कहते हैं । जिसके द्वारा लौकिक समस्त कार्योंकी सिद्धि होती है उसे अर्थ कहते हैं। इसीके द्रव्य धन संपत्ति आदि नाम है । स्पर्शन रसना आदि पांचों इंद्रियोंकी स्पर्श रस आदि विषयोंमें जो प्रीति है उसे काम कहते हैं। इस प्रकार धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थोंको त्रिवर्ग कहते हैं । इन तीनों पुरुषार्थों का सेवन गृहस्थको नित्य ' करना चाहिये, परंतु वह सेवन इसप्रकार गायको परनिंदारुपी धानके खानेसे रे।क, अर्थात् किसीकी निंदा मत कर। ३ परपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षाच वध्यते कर्म । नीचर्गोत्रं प्रतिभवमनेक भवकोटिदुर्मोचं ॥ अर्थ-यह जीव परकी निंदा और अपमान करनेसे तथा अपनी प्रशंसा करनेसे प्रत्येक भवमें नीचगोत्रकर्मका ऐसा बंध करता है कि जिसका छूटना करोडों भवोंमें भी कठिन हो । भावार्थ- दूसरेकी निंदा और अपनी प्रशंसा करनेसे इस जीवको करोडों वर्षोंतक चांडाल आदि नीच गोत्रोंमें जन्म लेना पडता है ।
१. 'संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ' जो संसारके दुःखों से निकालकर जीवोंको उत्तम सुखमें पहुंचादे वही धर्म है । | २. यस्य त्रिवर्गशून्यानि दिनान्यायांति यांति च । स लाहकारभस्त्रेव