________________
४२]
प्रथम अध्याय
-
शक्तिके अनुसार किसी एक प्रतिमाको धारण करता हैं उसकी प्रशंसा करते हैं
रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख-। स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधाद्यहोव्यपोहात्मसु ॥ सद्दृग्दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-। स्वेकं यः श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।। १६॥
अर्थ--आगे जो ग्यारह प्रतिमा कहेंगे उनमें अनुक्रमसे उत्तरोत्तर रागद्वेष मोहका अधिक अधिक क्षयोपशम होता जाता है, ज्यों ज्यों राग द्वेष मोहका अधिक अधिक क्षयोपशम होता जाता है त्यों त्यों निर्मल चैतन्यरूपी अनुभूति प्रगट होती जाती है । वह निर्मल चैतन्यरूपी अनुभूति ही एक प्रकारका आनंद है अथवा उस अनुभूति (ज्ञान) से एक प्रकारका आनंद उत्पन्न होता है। उस निर्मल चैतन्यरूपी अनुभूतिसे उत्पन्न हुये आनंदका अनुभव करना अथवा उस अनुभूति स्वरूप आनंदका अनुभव करना ही उन ग्यारह प्रतिमाओंका अंतरंग स्वरूप है । अभिप्राय यह है कि रागद्वेष मोहके उत्तरोत्तर अधिक अधिक क्षयोपशम होनेसे जो शुद्ध आत्माकी अनुभूति प्रगट होती है उसके आनंदका अनुभव करते जाना ही ग्यारह प्रतिमायें कहलाती हैं । तथा मन बचन कायसे त्रस जीवोंकी ( संकल्पी ) हिंसा स्थूल झूठ चोरी मैथुन परिग्रह आदि पापोंका देव गुरु और सर्मियों के सामने विधि