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प्रथम अध्याय
अर्थ — जो गुरु आदिसे धर्मका
मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ||१५|| उपदेश सुनता है उसे श्रावक कहते हैं । जो उत्तरगुणों के उत्पन्न होने में कारण हो और जिन्हें संयम धारण करनेवाले प्रथम ही धारण करें उन्हें मूलगुण कहते हैं । जो मूलगुणों के पीछे धारण किये जाय और जो उत्कृष्ट हों उन्हें उत्तरगुण कहते हैं । मूलगुण और उत्तरगुण ये दोनों ही संयमके भेद हैं। जो श्रावक अर्थात् देशसंयमी पुरुष अरहंत आदि पांचों परमेष्ठियों के चरणकमलोको ही शरण मानता है, उन्हींको अपना दुख दूर करनेवाला समझता है उन्हींमें अपना आत्मा समर्पण करता है ऐसा पुरुष अर्थात् पांचों परमेष्ठियों पर श्रद्धा रखनेवाला सम्यग्दष्टी जो पुरुष लौकिक सुखों की इच्छा न करके निराकुलतासे मूलगुण और उत्तरगुणों को धारण करता है, जो ' पात्रदान आदि चार प्रकारके दान और नित्यमह आदि पांचप्रकारके यज्ञ ( पूजन) इन दोनों क्रियाओं को मुख्य रीतिसे करता है और जो स्वपर अर्थात् आत्मा और शरीर आदि पुद्गलों को भिन्न भिन्न जाननेवाले ज्ञानरुपी अमृतको सदा पीने की इच्छा रखता है उसे श्रावक कहते हैं । इससे
१ ध्यानेन शोभते योगी संयमेन तपोधनः । सत्येन बचसा राजा गेही दानेन शोभते || मुनि ध्यानसे, तपस्वी संयमसे, राजा सत्य बचनोंसे और गृहस्थ पात्रको दान देनेसे ही शोभायमान होता है। 1