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प्रथम अध्याय सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेके लिये नित्य प्रयत्न करते रहना चाहिये । इसी विधिको कहने के लिये यह उपरका सूत्र कहा गया है ॥ १३ ॥
आगे-धर्म और सुखके समान यश भी मनको प्रसन्न करनेवाला है, इसलिये शिष्ट पुरुषोंको उसका भी अवश्य संग्रह करना चाहिये अर्थात् यश फैलाना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं
धर्म यशः शर्म च सेवमानाः केप्येकशो जन्म विदुः कृतार्थ । अन्ये द्विशो विद्म वयं त्वमोघा
न्यहानि यांति त्रयसेवयैव ।। १४ ।। अर्थ--संसारमें कितने ही ऐसे जीव हैं कि जो पुण्य यश और सुख इन तीनों में से किसी एकके सेवन करनेसे अपना जन्म कृतार्थ मानते हैं। सब लोगों की रुचि एकसी नहीं होती अलग अलग होती है इसलिये कोई तो केवल धर्मसाधन करनेसे ही अपना जन्म सफल मानकर केवल उसीका सेवन करते है यश और सुखको छोड देते हैं। कोई अपना यश फैलाकर ही धारण न करे तथापि कुछ हानि नहीं है, क्योंकि जो सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ है तो उसे चारित्र भी कभी न कभी अवश्य मिल जायगा। परंतु उसे कुदवोंका सेवन नहीं करना चाहिये । क्योंकि भूखे पुरूषको यदि अन्न मिलना सुलभ है तो उससे उसकी भूख मिटही जायगी । यदि कदाचित् अन्नका मिलना दुर्लभ हो तो उस समयमें भी ऐसा कौन भूखा पुरुष है जो अन्नके बदले विष खाना चाहता हो ?
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