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सागारधर्मामृत
[ ३७ होनेके पहिले जिसके आयुकर्मका बंध नहीं हुआ है ऐसा सम्यग्दृष्टी जीव भी श्रेष्ठ देव और उत्तम मनुष्य होनेके सिवाय अन्य गतियों में परिभ्रमण नहीं कर सकता अर्थात् उसका अन्य संसारके परिभ्रमणका क्लेश सब दूर हो जाता है । तथा जिसने सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के पहिले आयुकर्मका बंध कर लिया हो और वह नरकायुका बंध हुआ हो तो वह जीव रत्नप्रभा भूमिमें अर्थात् पहिले नरकमें ही जघन्य अथवा मध्यम स्थितिका ही अनुभव करेगा, उसे वहां अधिक दिनतक दुख सहन नहीं करने पड़ेंगे। इसलिये जो भव्य जीव संसारके दुःखोंसे भयभीत हैं उन्हें जबतक संयमकी प्राप्ति न हो तबतक
२ दुर्गतावायुषो बंधात्सम्यक्त्वं यस्य जायते । आयुश्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यल्पतरा स्थितिः ॥ दुर्गतिमें आयुबंध होनेके पीछे जिसके सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ है उसके यद्यपि आयुकर्मका छेद नहीं होता तथापि स्थिति घटकर बहुत थोडी रहजाती है । इसलिये उसे थोडे दिन ही दुःख भोगने पड़ते हैं। यह सम्यक्त्वकी महिमा है। १ जन्मोन्माज्यं भजतु भवतः पादपद्मं न लभ्यं
तच्चेत्स्वैरं चरतु न च दुर्दैवतां सेवतां सः । अश्नात्यन्नं यादह सुलभं दुर्लभं चन्मुधास्ते क्षुद्यावृत्यै कवलयति कः कालकूटं बुभुक्षुः ॥ १ ॥ हे देव ! जन्ममरणरूपी दुःखोंके नाश करनेकी जिसकी इच्छा है वह दुर्लभ ऐसे आपके चरणकमलोंकी भक्ति करे आपमें दृढ भक्ति रखकर यदि वह स्वेच्छानुचारी भी हो अर्थात् किसी भी चारित्रको