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प्रथम अध्याय पडता है । भावार्थ यह है कि जिसके सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया है परंतु चारित्रमोहनीय कर्मके प्रबल उदयसे, जो इंद्रियसुखों को छोड नहीं सकता, त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं कर सकता ऐसा 'अविरत सम्यग्दृष्टी जीव भी पापोंसे | 'अत्यंत क्लेशित नहीं होता है । जब अविरत सम्यग्दृष्टी जीव ही अनेक पापोंसे अधिक दुखी नहीं है तो जिसने विषयसुख सब छोड दिये हैं अथवा जिसने एकदेश किंवा सर्वदेश हिंसादिका त्याग कर दिया है ऐसा जीव भी पापोंसे क्लोशित नहीं हो सकता । यह श्लोकमें दिये हुये अपि शब्दसे सूचित होता है । इससे यह भी अभिप्राय निकलता है कि सम्यग्दर्शन उत्पन्न
१ णो इंदिऐसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइठी अविरदो सो ॥ जो न तो इंद्रियोंके विषयोंसे विरक्त हुआ है और न त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसासे विरक्त हुआ है परंतु जिनेंद्रदेवके कहे हुये पदार्थोंपर पूर्ण श्रद्धान करता है उसे अविरत सम्यग्दृष्टी कहते हैं।
२ न दुःखबीजं शुभदर्शनक्षितौ कदाचन क्षिप्रमपि प्ररोहति । सदाप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं कुदर्शने तद्विपरीतमिष्यते ॥ सम्यग्दर्शनरूपी भूमिमें यदि दुखके बीज पड भी जायं तो वे शीघ्र उत्पन्न नहीं होते, और सुखके बीज यदि न भी पडे हों तो भी सुख उत्पन्न होता है। मिथ्यादर्शनरूपी भूमिमें ठीक इसके प्रतिकूल फल उत्पन्न होते हैं, अर्थात् उसमें यदि सुखके बीज पड भी जायं तो भी वे उत्पन्न नहीं होते और दुखके न पडते हुये भी दुःख उत्पन्न होता ही है।
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