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सागारधर्मामृत
[४३ | पूर्वक त्याग करना तथा उत्तरोत्तर अधिक अधिक त्याग करते
जाना उन प्रतिमाओंका बाह्य स्वरूप कहलाता है । इसप्रकार जिनका अंतरंग और बाह्य स्वरूप है ऐसे दर्शनिक व्रत आदि देशसंयमी श्रावकके ग्यारह स्थानोंमेंसे अर्थात् ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे मुनियोंके महाव्रतोंमें अर्थात् हिंसादि पापोंका पूर्णरूपसे त्याग करनेरूप परिणामोंमें आसक्त हुआ सम्यग्दृष्टी पुरुष एक प्रतिमा भी धारण करता है उस श्रावकको बहुत धन्यवाद है, वह बहुत ही अच्छा करता है । यहांपर प्रतिमाओंको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टी श्रावकका महाव्रतोंमें आसक्त होना विशेषण दिया है, उसका यह अभिप्राय है कि जैसे मंदिर बनाकर उस पर कलश चढाते हैं उसी प्रकार श्रावकोंके व्रत धारण कर अंतमें महाव्रत अवश्य धारण करने चाहिये । कलशोंके विना जैसे मंदिरकी शोभा नहीं उसीप्रकार अंतमें मुनिधर्म धारण किये विना श्रावकधर्मकी शोभा नहीं है । श्रावकधर्मरूपी मंदिरके शिखर पर महाव्रतरूपी कलश चढाना ही चाहिये । सूत्रमें दिये हुये च शब्दका प्रयोजन यह है कि वह जिस प्रतिमाका पालन करे उसे पूर्ण गीतसे पालन करै अर्थात् उस प्रतिभाका पूर्ण चारित्र पालन करै ॥ १६ ॥
आगे-उन ग्यारह प्रतिमाओंके नाम कहते हैंदृष्ट्या मूलगुणाष्टकं व्रतभरं सामायिक प्रोषधं सच्चित्तानदिनव्यवायवनितारंभोपधिम्यो मतात् ।