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सागारधर्मामृत
[३१ है। जिसके दया नहीं है उसे जैनधर्म धारण करनेका अधिकार नहीं है । यदि शत्रु भी हो तथापि उसपर दया करनी चाहिये। जो दयालु है उसमें सब गुण आकर निवास करते हैं।
अघभी--अर्थात् पापभीरु-जो हिंसा झूठ चोरी शराब जूआ आदि बुरे कामोंसे डरता है उसे पापभीरु वा पापोंसे डरनेवाला कहते हैं।
इसप्रकार ऊपर लिखे हुये चौदह गुण जिस पुरुषमें विद्यमान है वही सागार धर्मके पालने योग्य है ॥ ११ ॥ प्रिय हैं उसीप्रकार सब जीवोंको अपने अपने प्राण प्रिय हैं। इसलिये मनुष्योंको अपने आत्माकी तरह सब जीवोंकी दया करनी चाहिये ।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यतां । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ भो भव्यजन हो ! धर्मका मुख्यसार सुनो और सुनकर उसे धारण करो अर्थात् उसके अनुसार चलो। वह धर्मका मुख्यसार यही है कि अपने आत्माके प्रतिकूल जो दुःख आदि हैं उन्हें किसी दूसरे जीवको मत होने दो अर्थात् किसीको दुःख मत दो, सबपर दया करो।
अवृत्तिव्याधिशोकानिनुवर्तेत शक्तितः। आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकाः ॥ जिनकी कोई जीविका नहीं है तथा जो रोग शोक आदिसे दुखी हैं ऐसे जीवोंपर दयाकर उनका दुख दूर करना चाहिये और कीडे चिउंटी आदि छोटे छोटे जीवोंको भी सदा अपने समान देखना चाहिये। . . .
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