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सागारधर्मामृत
[३३ आवीचिमरण तो सब जीवोंके प्रत्येक समयमें होता रहता है। ( प्रत्येक संसारी जविके प्रत्येक समयमें जो आयुकर्मके निषेक खिरते रहते हैं उसे आवीचिमरण कहते हैं ) किसी वस्तुके लाभकी इच्छा न करके बाह्य तथा आभ्यंतर तपश्चरणके द्वारा शरीर और कषायोंको कृश करना अर्थात् घटाना सल्लेखना कहलाती है । पुत्र, मित्र, स्त्री, विषय आदिके सुख, क्रोध
आदि कषाय इन सब परिग्रहोंको छोडकर शांत चित्तसे धर्मध्यानमें लीन हो जाना ही सल्लेखना है । यह सल्लेखनाव्रत सागारधर्मरुपी राजमंदिर पर कलशके समान है। अभिप्राय यह है कि विना सल्लेखनाके सागारधर्मकी शोभा नहीं है। इस सल्ले. खनाकी विधि इसी ग्रंथके अंतिम अध्याय लिखेंगे । ॥१२॥
आगे-असंयमी सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी अशुभ कर्मोंका फल मंद होता है यही दिखलाते हैं
भूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाशया हेयं वैषायकं सुखं निजभुपादयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिंदादिमान् शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोप्यधैः ॥ १३ ॥
अर्थ--" भगवान सर्वज्ञ वीतरागदेवकी आज्ञा | कभी उल्लंघन करने योग्य नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ वीतरागदेव कभी मिथ्या उपदेश नहीं दे सकते " इसप्रकारके दृढ विश्वाससे जो उनकी आज्ञा मानता है अर्थात् जिसके गाढ सम्य