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सागारधर्मामृत
[२७ शास्त्रमें जिन पदार्थोंके खानेका निषेध किया हैं उनको नहीं खाना चाहिये तथा वैदकशास्त्रके अनुसार भोजन करना चाहिये, योग्य देश तथा योग्य कालमें घूमना फिरना आदि विहार करना चाहिये कि जिसमें रत्नत्रयधर्मकी हानि न हो।
आर्यसमिति-अर्थात् गृहस्थको सदाचारी और 'सज्जनोंकी संगति करना चाहिये । जुआरी, धूर्त, व्यभिचारी, मिथ्यात्वी, भांड, मायावी और नट आदि दुष्ट पुरुषोंकी संगति कभी नहीं करना चाहिये । - प्राज्ञ-अर्थात् ऊहापोहरुप २ विचार करनेवाला । जो विचारवान है वह बल अबलका विचार करता है, दीर्घदर्शी
१ यदि सत्संगनिरतो भविष्यसि भविष्यसि । अथ संज्ञानगोष्ठीषु पतिष्यसि पतिष्यसि ॥ अर्थ-जो तू सज्जनोंकी संगति करेगा तो निश्चय ही उत्तम ज्ञानकी गोष्ठीमें पडेगा अर्थात् ज्ञान संपादन करेगा।
२ इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेष क्रमो व्ययोप्यमनुषंगजं फलमिदं दशैषा मम । अयं सुहृदयं द्विषत्प्रियतदेशकालाविमाविति प्रतिवितर्कयन् प्रयतते बुधो नेतरः । अर्थ-यह फल है, इसके उत्पन्न करनेके लिये यह क्रिया करनी पडती है, उस क्रियाका यह साधन है, उसका क्रम ऐसा है, उसके करनेमें इतना खर्च होगा, उसके संबंधसे यह फल मिलेगा, मेरी दशा ऐसी है, यह मेरा शत्रु है, यह मेरा मित्र है, यह देश ऐसा है, समय ऐसा है इन सब बातोंका विचार करके किसी कार्यमें प्रवर्त होना बुद्धिमानका ही काम है, मूल्को इतना | विचार नहीं हो सकता।