________________
सागर
v
~
सांगीरधर्मामृत
[२३ कि जैसे वह किसान दुखी होता है जिसके यहां बहुत अनाज उत्पन्न होनेपर भी जिसने अगिली फसलके बोनेके लिये बीज नहीं रक्खा है या बीज खरीदनेके लिये धन नहीं रक्खा है। संसारमें वही जीव सुखी समझना चाहिये कि जो परलोकके सुख भोगता है । जो पुरुष अपना सब धन खर्चकर केवल धर्म
और कामका सेवन करता है वह भी अंतमें दुखी होता है, तथा जो पुरुष कामसेवन न करता हुआ केवल धर्म और अर्थका सेवन करता है वह तो गृहस्थ ही नहीं कहला सकता क्योंकि श्री सोमदेवने लिखा है कि 'गृहिणी गृहमुच्यते न पुनः काष्ठसंग्रहः' अर्थात् स्त्रीका नाम ही घर है। ईंट पत्थर, काठ आदिके समुदायको घर नहीं कहते ।
धनी पुरुषोंके तीन भेद हैं-तादात्विक, मूलहर और कदर्य । ये तीनों ही ऐसे हैं कि इनके हाथसे धर्मकी रक्षा और कामसेवन नहीं हो सकता । जो पुरुष आगेका कुछ बिचार न कर मिले हुये धनको केवल अयोग्य कार्योंमें खर्च करता है उसे तादालिक कहते हैं, जो पूर्वजोंके कमाये हुये धनको चीजें खरीदे, तीसरा भाग धर्मकार्य और अपने भोग उपभोगोंमें खर्च करे और चौथे भागसे अपने कुटुंबका पालन करै ॥ अथवा-आयार्द्ध च नियुंजीत धर्मे समाधकं ततः। शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छमैहिकं॥ अर्थ-अपने कमाये हुये धनका आधा अथवा कुछ अधिक | धर्मकार्यमें :खर्च करै . और वचे हुये द्रव्यसे यत्नपूर्वक कुटुंब