________________
wwwwwwwwwwww
सागारधर्मामृत आदि अपने और दूसरेके उपकार करनेवाले आत्माके धर्म गुण कहलाते हैं; सत्कार, प्रशंसा, सहायता आदिसे उन गुणोंको पूज्य मानना अथवा बढाना गुणपूजा है। माता पिता और आचार्यको गुरु कहते हैं, इनको तीनों समय अर्थात् सवेरे, दोपहर
और शामको प्रणाम करना, इनकी आज्ञा मानना तथा और भी विनय करना 'गुरुपूजा है। अथवा जो ज्ञान संयम आदि गुणोंसे गुरु अर्थात् बडे वा पूज्य हैं उनको गुणगुरु कहते हैं। ऐसे पुरुषोंकी सेवा करना, आते हुये गुरुको देखकर खडे हो जाना, उन्हें ऊंचा आसन देना, नमस्कार करना आदि गुणगुरुओंकी पूजा कहलाती है।
सीः -जो मधुर, प्रशंसनीय और उत्कृष्ट बचन कहता है, दूसरेकी निंदा और अपमान करनेवाले तथा कठोर प्रीति रखना, दूसरेके किये हुये कार्यका उपकार मानना, और दाक्षिण्य रखना अर्थात् कठोरता और दुराग्रह नहीं करना सदाचार कहलाता है। १ यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणां । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥अर्थ-हमारे जन्म लेनेके समय हमारे माता पिता जो दुख
और क्लेश सहन करते हैं यदि उसका कोई बदला चुकाना चाहे तो वह उनकी सौ वर्ष सेवा करने पर भी नहीं चुका सकता। २ यदिच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवादसस्येभ्यो गां चरंती निवारय॥ अर्थ-हे जीव ! यदि तू समस्त संसारको एक ही उपायसे वश करना चाहता है तो वह उपाय यही है कि तू अपनी वाणीरुपी