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प्रथम अध्याय इस प्रकार उपदेश देनेवाले और उपदेश सुननेवाले दोनोंकी व्यवस्थाकर सागार धर्मको पालन करनेवाले गृहस्थका लक्षण कहते हैं
न्यायोपात्तधनो यजन्गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजनन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणीस्थानालयो ह्रीमयः । युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी
शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभीः सागारधर्म चरेत् ॥११॥
अर्थ--जो पुरुष न्यायसे द्रव्य कमाता है, सद्गुण और गुरुओंकी पूजा करनेवाला है, जो सत्य और मधुर वचन बोलता है, धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थीको परस्पर विरोध रहित सेवन करता है, ऊपर लिखे हुये पुरुषार्थ सेवन करने योग्य नगर अथवा गांव के घरमें तीनों पुरुषार्थ सेवन करने योग्य स्त्रीके साथ निवास करता है, जो लज्जा सहित है, योग्य रीतिसे आहार विहार करता है, सज्जानोंकी संगति करता है, विचारशील है, कृतज्ञ है, इंद्रियोंको वशमें रखनेवाला है, जो सदा धर्मविधिको सुनता रहता है, जो दयालु है और पापोंसे डरता रहता है, ऐसा पुरुष सागारधर्मको सेवन करने योग्य है।
भावार्थ-अपने स्वामीसे विरोध करना, मित्रसे विरोध करना, विश्वासघात करना और चोरी करना आदि निंद्य (नीच) कार्य कहलाते हैं, ऐसे नीच कार्योंको छोड़कर ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र आदि