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सागारधर्मामृत न्मत्त बना देता है, क्योंकि वह परोपदेश पूर्वक होनेसे अनेक तरहके विकार उत्पन्न कर देता है । तथा तीसरा सांशयिकमिथ्यात्व श्वेतांबरादिकोंके हृदयमें बाणके समान दुःख देता है, जिसप्रकार हृदयमें लगेहुये बाणसे अधिक दुःख होता है उसीप्रकार सांशयिक मिथ्यात्वीके सब पदार्थों में अनिश्चय होनेसे सदा ही दुःख बना रहता है ॥ ५ ॥
आगे--अविद्याका मूलकारण मिथ्यात्व है उसके नाश करनेकी सामर्थ्य सम्यग्दर्शनमें है उस सम्यग्दर्शन परिणामों के उत्पन्न होनेकी सामग्री कितने प्रकारकी है यही दिखलाते हैं
आसन्नभव्यताकमहानिसंज्ञित्वशुद्धिभाक् ।
देशनाद्यस्तामथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥६॥ __अर्थ-जिस जीवके रत्नत्रय व्यक्त होनेकी योग्यता है उसे भव्य कहते हैं और जो थोड़े ही भव धारण कर मुक्त होगा उसे आसन्न कहते हैं, जो जीव आसन्न होकर भव्य हो उसे आसन्नभव्य अथवा निकटभव्य कहते हैं । जो जीव आसन्न भव्य है, जिसके सम्यक्त्व नाश करनेवाले अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृतिमिथ्यात्व इन मिथ्यात्व कर्मोंका यथासंभव उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय हो चुका है, जो 'शिक्षा, क्रिया
१ मनोवष्टंभतः शिक्षाक्रियालापोपदेशवित् ।
येषां ते संज्ञिनो मां वृषकीरगजादयः ॥ अर्थ-जिनके शिक्षा क्रिया आलाप और उपदेशको अच्छी