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"कर्मयोग्यपुद्गला अंजन चूर्ण पूर्ण समुद्गकन्यानेन सर्वलोकव्यापित्वाद्यवात्मा तवानानीता एवावतिष्ठत इत्यत्रोक्तम् - पंचास्तिकाय संग्रह गा ६४ । टीका
अर्थात् कर्मयोग्य पुद्गल ( कार्मणवर्गणारूप पुद्गलस्कध ) अंजनचूर्ण से ( अंजन के बारिक चूर्ण से ) भरी हुई डिब्बी के न्याय से समस्त लोक में व्याप्त है । इसलिए जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना लाये ही ( कहीं से लाये गये बिना ही ) वे स्थित है । अस्तु आत्मा मोहराग-द्व ेष रूप अपने भाव को करता है । वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में विशिष्ट प्रकार के अन्योन्य- अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते । आत्मा जिस क्षेत्र में और जिस काल में अशुद्धभाव रूप परिणमित होता है, उसी क्षेत्र में स्थित कार्मणवर्गणा रूप पुद्गल-स्कध उसी काल में स्वयं अपने भावों से ही जीव के प्रदेशों में विशेष प्रकार से परस्पर अवगाह रूप से प्रविष्ट हुए, कर्मपने को प्राप्त होते हैं ।
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संसारी जीव कारणभूत ऐसी भावकर्मरूप आत्मपरिणाम संतति और द्रव्यकर्मरूप पुद्गल परिणाम संतति द्वारा देवादि रूप में कार्यभूत रूप से उत्पन्न होता है । केवलदर्शन से मूर्त ( पुद्गल ) - अमूर्त द्रव्य को सकल रूप से सामान्यतः अवबोधन करता है ; केवलज्ञान से समस्त विषयों का विशेष धर्मो का ज्ञान होता है । ज्ञानियों ने द्रव्य को विश्वरूप कहा है ।' विश्वरूप अर्थात् अनेक रूप है ।
वर्णं, रस, गंध व स्पर्श वास्तव में परमाणु में प्ररूपित किये जाते हैं । वे परमाणु से अभिन्न प्रदेशवाले होने के कारण अनन्य होने पर भी संज्ञादिव्यपदेश के कारण भूत विशेषों द्वारा अन्यत्व को प्रकाशित करते हैं । २ परन्तु स्वभाव से सदैव अपृथक्पने को धारण करते हैं । जीव के पारिणामिक भाव का लक्षण अर्थात् स्वरूप सहज चैतन्य है । यह पारिणामिक भाव अनादिअनंत होने से इस भाव को अपेक्षा से जीव अनादिअनंत है । इस पारिणाभिक भाव की अपेक्षा पुद्गल भी अनादिअनंत है ।
नंदीसूत्र में कहा है कि महाभारत, पुराणादि अन्य सब धर्मशास्त्र जो उचित ढंग से तथा सही अपेक्षा से समझे तो वे झूठे व मिथ्या नहीं है । उसके विपरीत अगर जैनागम ग्रन्थों को उचित रूप में समझ न सके तो वे मिथ्याश्रुत बन जाते हैं । प्रदेशी राजा ने सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद बारह बेले किये । तेरहवें बेले में सुरीकंता पत्नी ने पारणे में विष दिया । उस आहार को प्रदेशी राजा ने ग्रहण किया— फलस्वरूप मृत्यु प्राप्त कर सुर्याभदेव रूप में उत्पन्न हुआ ।
१. पंचास्तिकाय संग्रह गा ४३ २. पंचास्तिकाय संग्रह गा ५१
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