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ॐ समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल * २७ *
नमेकषाययुक्त विकार तथा राग, द्वेष, मोह आदि विभाव शान्त या क्षीण होते जाते हैं। चित्त में आत्मा के प्रति एकाग्रता, एकीभूतता, स्थिरता, अनुद्विग्नता आ जाती है। जैसा कि सामायिक का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया गया है-सम का अर्थ है“सावधयोग-परिहारपूर्वक निरवद्य योगानुष्ठानरूप जीव का परिणाम, उसकी आय (प्राप्ति) समाय है। समाय (समभाव) की उपलब्धि = प्राप्ति ही सामायिक है।" अथवा “समय का अर्थ आत्मा भी है। आत्मा के साथ एकीभूत होकर रहना-प्रवृत्त होना समाय है। समाय (आत्मा के साथ एकीभूत होकर रहना) जिसका प्रयोजन है, वह सामायिक है।"१
समत्वयोगी की विशेषता समतायोग से अभ्यस्त व्यक्ति जानता है कि संसार अपने आप में विषम या विकृत नहीं है, उसे विषम या विकृत बनाने वाली मनुष्य की अपनी बुद्धि या दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि या समत्वबुद्धियुक्त मनुष्य संसार की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों तथा विविध द्वन्द्वों में भी राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता, अच्छे-बुरे का भाव नहीं लाकर सम रहता है, ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहता है, जिससे वह शुभाशुभ कर्मों का बन्ध न करके, अबन्धक कर्म से युक्त (अकर्म) रहता है। आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“वीतरागता (समता की पूर्णता) में कुशल पुरुष न तो कर्मों से बद्ध है और न ही (पूर्ण) मुक्त है।"२ जैसा कि 'भगवद्गीता' में कहा गया है"समत्वबुद्धि से युक्त पुरुष इस लोक में पुण्य और पाप (पुण्योपार्जनार्थ सुकृत तथा पापोपार्जक दुष्कृत) दोनों (शुभाशुभ कर्मों) का त्याग कर देता है। अर्थात् उनमें लिप्त नहीं होता। इसलिए समत्वयोग के लिए प्रयत्न कर, क्योंकि समत्वयोग ही कर्मों में कुशलता है, यानी कर्म करते हुए भी (अकर्मा बनकर) कर्मबन्ध से अलिप्त रहना है।"
समतायोगी यह भलीभाँति जानता है कि यदि संसार-समुद्र (जन्म-मरणादि रूप संसार-सागर) को पार करके एकान्त आत्मिक सौख्यरूप मोक्ष में पहुँचना है तो समतायोग का आश्रय लिये बिना कोई चारा नहीं है।
१. (क) समः सावद्य-योग-परिहारः निरवद्य-योगानुष्ठानरूप-जीव-परिणामः।
तस्य आयः लाभः समायः, समाय एव सामायिकम्॥ (ख) समयः आत्मा तेन सहकीभूतेन वर्तनं समायः।
तत्प्रयोजनं यस्य तत्-सामायिकम्।। २. कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के।
-आचा. १/२/६ ३. बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत-दुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व, योगः कर्मसु कौशलम्॥ -भगवद्गीता, अ. २, श्लो. ५०
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