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२६ कर्मविज्ञान : भाग ८
परिणामों में तथा वेदन में परिवर्तन होने लगता है। लेश्याएँ शुभ, शुभतर और शुभतम होने लगती हैं। परिणाम (अध्यवसाय) भी विशुद्ध, विशुद्धतर होने लगते हैं और सुख-दुःखकारिणी परिस्थिति घटना या समस्या उपस्थित होने पर समतायोगी. उस प्रकार का वेदन नहीं करता । उसका पदार्थ निरपेक्ष, आत्म-सापेक्ष सुख - आनन्द बढ़ जाता है। अन्तःकरण की पवित्रता, शान्ति, समाधि और आनन्द की अनुभूति बढ़ती जाती है। अतः समतायोग की अनन्तर उपलब्धि है - समागत प्रतिकूलता को प्रसन्नता से सहने की शक्ति तथा दूसरों द्वारा किये गए प्रतिकूल व्यवहार को अनुकूलता में बदल देने की क्षमता । '
समभाव से आत्मा भावित हो जाने पर साधक के बाह्य जीवन में अन्य धर्म-सम्प्रदाय, जाति, परिवार, समाज या राष्ट्र आदि के मानवों तथा दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य की भावना जग जाती है और बाह्य पदार्थों के प्रति भी समत्वबुद्धि जागती है। प्राचीनकाल में जैनेतर जगत् का मनुष्य पर ही ध्यान था, इसलिए मानव समभाव की बात को महत्त्व दिया गया, लेकिन बाद में अन्य प्राणियों पर भी ध्यान गया कि मनुष्य के लिए पशु, पक्षी आदि भी उपयोगी एवं सहायक हैं; इसलिए 'गीता' में कहा है - " विद्या - विनय - सम्पन्न ब्राह्मण, गाय और हाथी पर तथा कुत्ते पर तथा श्वपाक ( चाण्डाल ) पर पण्डितजन समदर्शी होते हैं । " किन्तु जैन - जीवविज्ञान ने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी प्राणियों में जीव मानकर समत्वयोगी को उनके प्रति संयम रखने का निर्देश किया है, साथ ही अजीवकाय (प्रकृतिजन्य पदार्थों) के प्रति भी, शरीर इन्द्रियाँ, मन, अंगोपांग तथा अन्य अचेतन पदार्थों के प्रति भी संयम रखने का विधान है। आशय यह है कि पर्यावरण सन्तुलन तथा समत्वयोग की दृष्टि से उन्होंने कहा - " किसी भी जीव को मत मारो तथा जिसमें जीव पैदा करने की क्षमता है, उसे (मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि आदि को ) भी नष्ट मत करो, क्योंकि उसमें उत्पादक शक्ति है। समत्व का सिद्धान्त है-कहीं भी विषमता पैदा मत करो, सन्तुलन रखो। न चेतन जगत् में विषमता पैदा करो और न अचेतन जगत् में। तुम्हारे कारण कहीं भी विषमता उत्पन्न न हो। पूर्णतया समत्व में रहो, सन्तुलन रखो ।” २
फलतः एक ओर से मन, वचन, काय आदि सावध ( हिंसादि पापमय ) प्रवृत्तियों से हटकर निरवद्य अहिंसा आदि प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं । दूसरी ओर से, मन आदि अन्तःकरण समभाव में स्थिर हो जाने से क्रोधादि कषाय
१, 'जैनयोग' के आधार पर, पृ. १०७
२. (क) वही, पृ. १०३-१०४
(ख) विद्या - विनय - सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
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- भगवद्गीता, अ. ५/१८
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