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कर्मों का आसव : स्वरूप और भेद ५६१
या स्त्री के लिए पुरुष का कामुकता की दृष्टि से स्मरण),(२) कीर्तन (बार-बार उसका गुणगान कामवासना की दृष्टि से करना), (३) केलि-(किसी स्त्री के साथ क्रीडा करना-नाचना या खेलना)(४) प्रेक्षण-(काम राग की दृष्टि से किसी स्त्री को ताक-ताक कर देखना); (५) गुह्यभाषण (एकान्त में गुप्त रूप से वार्तालाप करना), (६) संकल्प (किसी स्त्री पर मोहित होकर उसे पाने का संकल्प-विकल्प करना), (७) अध्यवसाय (मन में दृढ़ निश्चय करना कि नहीं मिलेगी तो प्राण त्याग दूंगा), (८) क्रियानिष्पत्ति , (किसी स्त्री के साथ अनाचार सेवन करना)।
भारतीय मनीषियों ने इन्हें मैथुन के अंग कहे हैं। मैथुन प्रवृत्ति चाहें मन से हो, वचन से हो, या काया से, महान् दोषों की पोषक और अनर्थों की परम्परा बढ़ाने वाली है; तथा लज्जा, दया, संयम, सदाचार, शील आदि सद्गुणों का ह्रास करने वाली है। कषाययुक्त तो यह प्रवृत्ति है ही, विशेषतः स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद. रूप काम नोकषायरूप भी है। मोहवृद्धि करने तथा चारित्रिक गुणों का नाश करने वाली यह प्रवृत्ति पापकर्मानव तथा पापकर्मबन्ध कराती है, जो नरकगामी बना देती है। रावण, मणिरथ, आदि का ज्वलन्त उदाहरण हमारे समक्ष है, जो इसी अव्रत का फल नरक के मेहमान बनकर भोग रहे हैं। अव्रत का पंचम अंग : परिग्रह : स्वरूप और विश्लेषण
अव्रत का पंचम अंग परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ तत्त्वार्थसूत्रकार ने किया हैमूर्छा; अर्थात्-आसक्ति-ममता। शब्दशः परिग्रह का फलितार्थ है-वस्तु छोटी हो या बड़ी, सचेतन हो या अचेतन, विद्यमान हो या अविद्यमान, बाह्य हो या आन्तरिक, उसे ममता-मा-आसक्ति पूर्वक मन-वचन-काया से ग्रहण करना, संग्रह करना, मूर्छापूर्वक रखना, ममत्वपूर्वक उसका उपयोग करना परिग्रह है। ___परिग्रह भी महान् अनयों का मूल है। वस्तुओं को पाने, जुटाने, उपभोग करने में
और गुम हो जाने, चुराये जाने या नष्ट हो जाने पर अहर्निश चिन्ता, शोक, व्यथा, आर्तध्यान-रौद्रध्यान आदि मानसिक व्याधियाँ लग जाती हैं। अर्थ-लोलुपता, स्वार्थन्धिता, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, तस्करी, चोर-बाजारी, वैर-परम्परा, प्रियजन की हत्या; आत्महत्या, तनाव, अनिद्रा, आधि-व्याधि-उपाधि आदि सब परिग्रह राक्षस के ताण्डव नृत्य हैं। परिग्रह का गुलाम मानव अपनी मानवता तक को तिलांजलि दे देता है।
१. स्मरण कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणं संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च। - एतन्मैथुनमष्टांग प्रवदन्ति मनीषिणः। विपरीतमेतद् ब्रह्मचर्य............ || २. (क) मूछपिरिग्रहः।-तत्त्वार्थ, ७/१२ १. (ख) तत्त्वार्थ. विवेचन (पं. सुखलालजी)
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