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५६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) . अव्रत का तृतीय अंग : स्तेय-चोरी : स्वरूप और विश्लेषण
इसके पश्चात्-अव्रत का तृतीय अंग है-स्तेय-चोरी। चोरी का अर्थ है-बिना दिये, या बिना स्वीकृति दिये, लेना (अदत्तादान) चोरी है। जिस वस्तु पर दूसरे का स्वामित्व या अधिकार हो, उसे उसके स्वामी की आज्ञा या स्वीकृति के बिना चौर्यबुद्धि से ग्रहण करना, अपने कब्जे में कर लेना, अदत्तादान या चोरी है।
इसके अन्तर्गत तस्करी, गिरहकटी, छीनाझपटी, लूटपाट, डकैती, धरोहर हड़पना, दूसरे के स्वामित्व की वस्तु को अपनी बताकर कब्जा कर लेना आदि सब चोरी के अन्तर्गत है।' चोरी से मनुष्य की कषाय वृत्ति, लोभवृत्ति, द्वेष, मोह, ममत्वबुद्धि भड़कती है। इसलिए चौर्य अव्रत अशुभकर्माम्नव एवं पापकर्मबन्धक प्रेरक है। ___चौर्य-अव्रत से दूर रहने के लिए निम्नोक्त बातों का ध्यान रखना आवश्यक है(१) अपनी आवश्यकताएँ घटाना, इच्छाएँ सीमित करना, (२) किसी उपयोगी वस्तु को भी, जो दूसरे की मालिकी की हो, ललचाई दृष्टि से न देखना, न ही बिना पूछे उसका उपयोग करना, (३) दूसरे की वस्तु, भले ही रास्ते में पड़ी हो, बिना आज्ञा के लेने का यानी अपने कब्जे में करने का विचार तक न करना, अगर गिरी हुई वस्तु को उसके मालिक तक पहुँचाने की नीयत से उठाना पड़े तो भी उसके मालिक को ढूँढ़कर सौंप दी जाए या मालिक न मिले तो किसी सार्वजनिक संस्था या सरकारी कार्यालय (निकटवर्ती थाने) में जमा करा दी जाए, परन्तु अपने पास तो हर्गिज न रखे। अव्रत का चतुर्थ अंग : अब्रह्मचर्य-मैथुन : स्वरूप और विश्लेषण
अव्रत का चतुर्थ अंग है-अब्रह्मचर्य। इसे मैथुन, कुशील या अब्रह्म भी कहते हैं। मैथुन-प्रवृत्ति अब्रह्मचर्य है।
मिथुन का अर्थ जोड़ा है। स्त्री पुरुष का जोड़ा तो प्रसिद्ध है, किन्तु वह पुरुष-पुरुष का, दूसरे की स्त्री या दूसरी स्त्री के पुरुष का; अथवा स्त्री-स्त्री का भी हो सकता है। मनुष्य जातीय का विजातीय पशु, देवजातीय, अथवा सजातीय नर-मादा पशु का, सजातीय देव-देवांगना का भी जोड़ा हो सकता है। ऐसे किसी भी जोड़े की कामराग (काम वासना) के आवेश से उत्पन्न मानसिक, वाचिक या कोई भी प्रवृत्ति मैथुन अर्थात्अब्रह्मचर्य है।
मैथुन शब्द का तात्पर्यार्थ है-कामरागजनित कोई भी अब्रह्मचर्य पोषक चेष्टा। अब्रह्मचर्य या मैथुन के आठ अंग बताये गए हैं-(१) स्मरण (पूर्वक्रीड़ित या पूर्वदृष्ट स्त्री १. (क) अदत्तादानं स्तेयम् । -तत्त्वार्य ७/१०
(ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) पृ. १७७ २. (क) मैथुनमब्रह्म।"-तत्त्वार्थ सूत्र ७।११
(ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. १७७-७८
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