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और उन्नीसवें तीर्थंकर के जन्म से पहिले कीर्तिवीर्य राजा तारा रानी माता के संभुम नामा चक्रवर्ती हुआ । ६ खण्ड का राज किया, सातवां खंड साधना की लालसा मे समुद्र मे डूब कर मर गये । सातमी नर्क मे जा पहुचे । इस घटना के कुछ ही समय पश्चात् काशी के राजा अग्निसिंह की रानी जयंति से नन्दन नामक सातवे बलदेव, दूसरी रानी शीलवी के गर्भ से दत्त नामक सातवें वासुदेव उत्पन्न हुए और पूर्वजात इनका समकालीन सिंहपुर मे प्रह्लाद राजा प्रति वासुदेव राज करता था । दत्त वासुदेव ने प्रल्हाद को मार कर ३ खंड का राज किया ।
अठारहवे तीर्थ कर के निर्वाण पद पाने के एक करोड़ एक हजार वर्ष पीछे मिथिला नगरी के कुम्भकार राजा की प्रभावती रानी से अगहन शुक्ल ११ को उन्नीसवे तीर्थंकर श्री मल्लीनाथ जी का जन्म हुआ । सौ वर्ष तक गृहस्थ मे रहे । मिथिला के उपवन मे गहन शुक्ला १९ को दीक्षा ली। उसी दिन केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई । तब से पूरे ५३ हजार ६ सौ वर्ष तक दीक्षा पाली । फाल्गुन शुक्ल १२ को मोदा प्राप्त किया ।
चौपन लाख वर्ष समय जब उन्नीसवे तीर्थंकर को मोक्ष पधारे बीत गया तब राजग्रही नगरी मे सुमित्र राजा के पद्मावती रानी से बीसवे तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी ज्येष्ठ कृष्णा ८ को जन्म | यह साढे बाईस हजार वर्ष गृहस्थाश्रम मे रहे । पश्चात् फाल्गुन शुक्ला १२ को अपनी राजधानी के उपवन मे दीक्षा ली। अनुमान ११. महीनो के पश्चात् केवल ज्ञान प्राप्त