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और वासुदेव श्री कृष्ण के चचेरे भाई। भावी तीर्थंकर होने के कारण वे अपरिमित बलशाली थे। किसी समय घूमते हुए वे वासुदेव श्री कृष्ण की आयुधशाला में चले गए। वहां रखे हुए श्री कृष्ण के निजी शस्त्रास्त्रों से यों खेलने लगे जैसे बालक खिलौनों से खेलता है। श्री कृष्ण के अतिरिक्त उन शस्त्रों को कोई उठा तक नहीं सकता था। पर कुमार अरिष्टनेमि उन शस्त्रों से खेल रहे थे। शस्त्रों को उठाने और रखने से महान शोर हो रहा था। अरिष्टनेमि ने वहां रखे हुए दिव्य शंख को उठाकर फूंक दिया। उससे प्रकट हुए प्रचण्ड घोष से द्वारिका की प्राचीरें हिल गईं। श्री कृष्ण दौड़कर आयुधशाला में पहुंचे। पूरा भेद जानकर उन्हें संतोष हुआ। साथ ही उन्हें अरिष्टनेमि के परमबली होने का ज्ञान भी मिल गया। उनके बल की थाह पाने के लिए श्री कृष्ण ने मुस्कराते हुए अपना बाहु फैलाया और अरिष्टनेमि से उसे झुकाने के लिए कहा। अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण का हाथ तिनके की तरह झुका दिया। तदनन्तर उन्होंने अपने हाथ की छोटी अंगुली सामने की। श्रीकृष्ण अपना पूरा बल लगाकर भी उसे झुका न सके। भाई के अप्रतिम बल को देखकर श्री कृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुए।
अरिष्टनेमि यौवन में भी भोगों से विमुख थे। वैवाहिक प्रस्ताव उन्होंने स्वीकार नहीं किए। माता शिवा देवी ने श्री कृष्ण पर अरिष्टनेमि को विवाह के लिए राजी करने का दायित्व डाला। श्री कृष्ण ने यह दायित्व अपनी रानी सत्यभामा को सौंप दिया। सत्यभामा चतुर और कुशल नारी थी। अरिष्टनेमि को अपने वाग्जाल में फांस कर वह विवाह के लिए उनकी मौन स्वीकृति लेने में सफल हो गई। श्री कृष्ण ने उग्रसेन राजा की पुत्री राजीमती के साथ अरिष्टनेमि का लग्न तय कर दिया। नियत समय पर बारात रवाना हुई। उग्रसेन के नगर-द्वार पर पहुंचते ही अरिष्टनेमि के कानों में पशुओं और पक्षियों की करुण चीत्कारें पड़ीं। उन्होंने सारथी से इसका कारण पूछा। सारथी ने स्पष्ट कर दिया कि ये पशु-पक्षी बारातियों के भोजन के लिए बाड़े में बन्द किए गए हैं और आसन्न मृत्यु की कल्पना से चीत्कार कर रहे हैं।
सुनकर अरिष्टनेमि का हृदय करुणा से विगलित हो गया। उन्होंने बाड़ों के द्वार खोलकर सभी पशु-पक्षियों को मुक्त कर दिया और तोरण द्वार से ही रथ को घुमाकर वे द्वारिका की दिशा में प्रस्थित हो गए। समुद्रविजय व श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाने के अनेक यत्न किए। अरिष्टनेमि का एक ही उत्तर था कि वे ऐसी शादी नहीं करेंगे जिससे हजारों की बर्बादी संभावित हो।
एक वर्ष तक वर्षीदान देकर श्री अरिष्टनेमि एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गए। चौवन दिन की साधना के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त करके उन्होंने धर्मतीर्थ की संस्थापना की। ____ आर्यबालाओं की ही भांति राजीमती ने अरिष्टनेमि का अनुगमन किया। वह भी साध्वी बनकर मुक्त हुईं। तीन सौ वर्ष की आयु में प्रवर्जित होने वाले प्रभु अरिष्टनेमि सात सौ वर्ष तक तीर्थंकर पद पर रहकर एक हजार वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध हुए। उनके उपदेशों से लाखों भव्य जीवों ने आत्मकल्याण का पथ प्रशस्त किया।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व 8 अरुणदेव
ताम्रलिप्ति नगरी के धनपति श्रेष्ठी कुमारदेव का पुत्र । शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर अरुण देव घर लौटा तो पिता ने उसका विवाह पाटलिपुत्र नगर की श्रेष्ठीकन्या देयिणी के साथ कर दिया। अरुण देव व्यापार और व्यवहार में पूर्ण कुशल था। उसका एक मित्र था महेश्वर दत्त। दोनों में प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध थे। दोनों मित्र साथ-साथ रहते, साथ-साथ खाते-पीते और आनन्दपूर्वक जीवन को बिता रहे थे। एक बार देयिणी जब ... 38 ...
- जैन चरित्र कोश ...