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है। तुम्हारा कहा मिथ्या हो गया तो जिनत्व कलंकित हो जाएगा। अब तो यही उपाय है कि जिनत्व की गरिमा की रक्षा के लिए मैं निदानपूर्वक प्राणोत्सर्ग कर राजपुत्र के रूप में जन्म लूं। अपने अविचारपूर्वक बोलने के इस परिणाम को देखकर शिष्य विह्वल हो गया। बोला, गुरुदेव ! निदानपूर्वक संथारा कर जिनत्व के गौरव की रक्षा मैं करूंगा।
शिष्य की सुदृढ़ता को देखकर गुरु ने शिष्य को आज्ञा दे दी । निदानपूर्वक संथारा करके शिष्य ने देहोत्सर्ग कर रानी धारिणी के गर्भ से पुत्ररूप में जन्म लिया। यथासमय रानी ने पुत्र को जन्म दिया। राज की प्रार्थना पर वृद्ध मुनि बालक को मंगलपाठ सुनाने के लिए पधारे। उस क्षण नवजात राजकुमार रो रहा था। गुरु ने बालक को इंगित किया और कहा, बोल मत, बोल मत, चुप रह ! वृद्ध गुरु के वचन को सुनते ही नवजात शिश को जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने 'न बोलने का निश्चय कर लिया। राजकमार का नाम प्रियदर्शी रखा गया। कालक्रम से राजकुमार बड़ा हुआ, परन्तु उसने बोलना शुरू नहीं किया। राजा ने राजकमार की यथासलभ-दर्लभ अनेक चिकित्साएं कराई. पर राजकमार ने अपना मौन नहीं तोडा।
प्रियदर्शी बारह वर्ष का हो गया। एक बार वह सेवकों से घिरा हुआ राजोद्यान में बैठा था। एक तोता बहुत शोर कर रहा था। एक बाज जोर से तोते पर झपटा और उसे ले उड़ा। बाज की पकड़ से छूटकर फड़फड़ाता हुआ तोता राजकुमार की गोद में आकर गिरा। राजकुमार ने तोते को गोद में रखकर उसे सहलाया और कहा, देखा ! बहुत बोलने की परिणाम?
एक सेवक ने राजकुमार को बोलते सुना तो वह दौड़ता हुआ राजा के पास गया और राजकुमार के बोलने का सुसंवाद उसको दिया। राजा-रानी दौड़कर उद्यान में पहुंचे और राजकुमार को बोलने के लिए कहा। पर राजकुमार पूर्ववत् मौन था। राजा की खीझ सेवक पर प्रकट हुई। उसने उसे झूठ बोलने के लिए शूली का दण्ड दिया। सेवक कांप उठा। उसने राजकुमार से प्रार्थना की कि वह एक बार बोलकर उसके प्राणों को बचा ले। राजकुमार बोला, तू बोला ही क्यों? बोलने के बड़े दुष्परिणाम हैं। __राजकुमार को बोलता सुनकर सभी प्रसन्न हुए। सेवक को पुरस्कार देकर मुक्त कर दिया गया। राजारानी के बहुत कहने पर राजकुमार ने 'बोलने के दुष्परिणाम' वाक्य का रहस्योद्घाटन करने के लिए पूर्वजन्म से वर्तमान तक का घटनाक्रम कह सुनाया। उसने तत्क्षण गुरु चरणों में पहुंचकर अधूरी साधना को पूरी करने का निश्चय प्रकट किया। राजा-रानी भी विरक्त हो गए और पुत्र के साथ ही दीक्षित हो गए। मुनि प्रियदर्शी निरतिचार संयम का पालन कर निर्वाण को प्राप्त हुए। प्रियमित्र (चक्रवर्ती)
पश्चिम महाविदेह में मूका नगरी के महाराज धनंजय और उनकी रानी धारिणी के अंगजात। यौवनवय में प्रियमित्र राजा बने और शस्त्रागार में चक्ररत्न के अवतरित होने पर षट्खण्ड को साधकर चक्रवर्ती बने। अन्तिम वय में दीक्षित होकर संयम की आराधना की और आयुष्य पूर्ण कर सप्तम् देवलोक में देव बने। वहां से च्यव कर एक भव मनुष्य का किया और पुनः देवलोक में गए। देवलोक से च्यव कर प्रियमित्र महारानी त्रिशला की रत्नकुक्षी से जन्म लेकर महावीर नामक चौबीसवें तीर्थकर बने।
-महावीर चरित्र
...जैन चरित्र कोश...
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