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एक बार एक शिकारी ने वसु राजा को एक पारदर्शी शिला की सूचना दी। राजा ने उस पारदर्शी शिला से अपना सिंहासन निर्मित कराया। उस सिंहासन पर बैठकर राजा ऐसे दिखता था जैसे वह आकाश पर बैठा हो । प्रकट रूप से यही प्रचारित किया गया कि राजा सत्य के बल पर आकाशीय सिंहासन पर आरूढ़ होता है । इससे राजा की ख्याति पूरी पृथ्वी पर फैल गई ।
किसी समय नारद पर्वत के आश्रम में आया। पर्वत छात्रों को अध्ययन करा रहा था और 'अजैर्यष्टव्यं' पद का अर्थ बकरे से यजन करना चाहिए, ऐसा कर रहा था। नारद ने उसे टोका और कहा, इस पद का अर्थ बकरा नहीं, बल्कि न उगने योग्य तीन साल पुराना चावल है। ऐसा ही आचार्य ने हमें पढ़ाया था । पर्वत नारद की बात मानने को तैयार न हुआ। दोनों मे परस्पर वाद-विवाद चलता रहा। अंततः निर्णय किया कि . वे वसु के पास जाएंगे, वसु सत्यवादी है, वह जो निर्णय देगा वह दोनों को मान्य होगा और जिसका पक्ष मिथ्या सिद्ध होगा उसे अपनी जिह्वा कटवानी पड़ेगी ।
पर्वत और नारद के इस निश्चय को सुनकर पर्वत की माता सहम गई। वह जानती थी कि नारद का पक्ष ही उचित है, और उसके पुत्र को पराजित ही होना होगा और जिह्वा छिदवाने का दण्ड भुगतना होगा । वह नहीं चाहती थी कि उसके पुत्र को दण्ड मिले। इसलिए वह शीघ्र ही महाराज वसु के पास पहुंची और अपने पुत्र के प्राणों की भीख मांगने लगी। उसने राजा वसु को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह पर्वत के पक्ष का समर्थन करेगा।
कहते हैं कि असत्य संभाषण करते ही सत्य के सहायक देवों ने वसु राजा को स्फटिक सिंहासन से धरती पर ला पटका। रक्त वमन करता हुआ वह अपयशपूर्ण मृत्यु को प्राप्त कर नरक में गया। कालधर्म को प्राप्त कर पर्वत भी नरक में गया । विशुद्ध चारित्र की आराधना करके नारद मोक्ष में गए।
- त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र / पार्श्वनाथ चरित्र
वसुसार
रत्नविशाला नगरी का एक प्रतिष्ठित वणिक । (देखिए - रत्नसार) वस्तुपाल (तेजपाल )
ईसा की तेरहवीं सदी के ये भ्रातृयुगल आदर्श जैन श्रावक थे । गुजरात राज्य के ये मन्त्री थे और प्रमुख सेना नायक भी। वस्तुपाल ने गुजरात राज्य की रक्षा के लिए तिरेसठ बार गुर्जर सेना का युद्ध में सफल नेतृत्व किया था । भ्रातृद्वय अद्भुत वीर और दानी थे । जैन धर्म के लिए उन्होंने आबू में नेमिनाथ भगवान का भव्य मंदिर बनवाया था । अन्य कई मंदिरों के निर्माण में भी उन्होंने करोड़ों रुपए व्यय किए थे।
भ्रातृद्वय में सर्वधर्म सहिष्णुता और उदारता का विलक्षण गुण था । उस युग में प्रचलित सभी धर्मों और सम्प्रदायों के उत्थान के लिए उन्होंने प्रभूत धन व्यय किया था। जन साधारण के लिए उन्होंने कूपों, तड़ागों और वापिकाओं का निर्माण कराया था। अनेक विद्वानों को भी उन्होंने अपना सरंक्षण प्रदान किया था जिन्होंने उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया ।
जैन धर्म के उत्थान, प्रचार-प्रसार और सर्वधर्म में समन्वय समर्पण जैसा इस भ्रातृयुगल में देखने को मिलता है वैसा अन्यत्र कम ही दिखाई देता है । वाग्भट्ट (कवि)
वि. की बारहवीं शती के एक विद्वान जैन कवि ।
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