Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 738
________________ कारण वे अपने युग के समर्थ विद्वान मुनि बने। शास्त्रार्थ में उन्हें विशेष कुशलता प्राप्त थी। चित्तौड़ में उन्होंने कई वैदिक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। उन्होंने जैन धर्म की महान प्रभावना की। ज्योतिष विद्या के भी वे अधिकारी विद्वान थे। उसके द्वारा वे भविष्य की घटनाओं का अध्ययन कर लेने में समर्थ थे। वी.नि. 1843 में आचार्य सोमप्रभ सूरि का स्वर्गवास हुआ। (ग) सोमप्रभ (राजा) । भगवान ऋषभदेव का पुत्र, श्रेयांस कुमार का पिता और हस्तिनापुर का राजा। सोमभूति चम्पानगरी का धनी ब्राह्मण। (देखिए-नागश्री) सोमवसु कौशाम्बी नगरी का रहने वाला एक जिज्ञासु युवक। सोमवसु सत्य का खोजी था और उससे कम पर उसे संतोष नहीं था। अनेक वर्षों तक वह दूर-दूर तक भटकता रहा। अनेक विद्वानों के पास वह गया, अनेक योगियों और ऋषियों के द्वार पर उसने दस्तक दी, पर उसकी सत्य-शोध को सन्तुष्टि नहीं मिली। आखिर एक बार उसे जैन श्रमण आचार्य सुघोष के दर्शनों का सुअवसर प्राप्त हुआ। आचार्य श्री के दर्शन से ही सोमवस को अनभव हआ कि वह अपनी मंजिल के सन्निकट है। रात्रि में शिष्य श्रमण गुर्वाज्ञा प्राप्त कर निद्रित हो गए। आचार्य श्री वैश्रमण अध्ययन का परावर्तन करने लगे। वैश्रमण देव स्वयं उपस्थित हुआ और आचार्य श्री को वन्दन कर पाठ सुनने लगा। पाठ पूर्ण होने पर देव ने आचार्य श्री को वन्दन किया और प्रार्थना की, भगवन् ! मेरे योग्य सेवा बताकर मुझे धन्य कीजिए! आचार्य श्री ने फरमाया, तुम्हारा हृदय सदैव धर्मदीप से आलोकित रहे। देव अपने स्थान पर लौट गया। सोमवसु आचार्य श्री की निस्पृहता देखकर गद्गद बन गया। उसने विचार किया, जिन देवताओं की कृपा की आकांक्षा में जगत में होड़ लगी रहती है वही देवता इन अकिंचन अणगारों की चरणरज प्राप्त कर स्वयं को धन्य अनुभव करते हैं। इस प्रकार चिन्तन करते-करते सोमवसु ने आचार्य श्री के पास दीक्षा धारण करने का संकल्प कर लिया। वह दीक्षित हुआ। उसने सत्य से साक्षात्कार साधा। नानाविध सुगम-दुर्गम साधनाओं से उसने अपनी आत्मा को भावित किया और सुगति का अधिकार प्राप्त किया। -धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 92 (क) सोमशर्मा देवकोटपुर नगर का रहने वाला एक वेदपाठी ब्राह्मण। वह चार वेदों, छह शास्त्रों और अठारह पुराणों का पारगामी पण्डित था। विद्वान होते हुए भी वह अपनी विद्या का उपयोग अर्थ उपार्जन के लिए नहीं करता था। वह व्यापार करता और उसी से अपना तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करता था। एक बार उसने विष्णुदत्त शर्मा से कुछ धन उधार लिया और व्यापार के लिए प्रदेश गया। मार्ग में डाकुओं ने उसके धन का हरण कर लिया। इससे सोमशर्मा बड़ा दुखी हुआ। जंगल में उसे एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि ने उसको धर्मोपदेश दिया। सोमशर्मा विद्वान तो था ही, परिणामतः उसने सुलभता से मुनि का उपदेश हृदयंगम कर लिया। उसका हृदय वैराग्य से पूर्ण हो गया और उसने मुनि से प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। मुनि सोमशर्मा कुछ वर्षों तक गुरु के सान्निध्य में विचरते रहे। गीतार्थ होने पर उन्होंने एकल-विहार प्रतिमा धारण कर ली। ... जैन चरित्र कोश .. - 697 ...

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