Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 739
________________ एक बार मुनि सोमशर्मा विचरण करते हुए देवकोटपुर नगर में पधारे। भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए मुनि सोमशर्मा को विष्णुशर्मा ने देखा और पहचान लिया। विष्णुशर्मा वैदिक-पण्डित था और ब्राह्मण धर्म को ही धर्म मानता था। श्रमण धर्म को वह पाखण्ड मानता था। उसके हृदय में रहा हुआ श्रमण-द्वेष जागृत हो गया और बाजार के मध्य में ही उसने मुनि का मार्ग रोक लिया। वह बुलन्द स्वर में मुनि से अपना धन मांगने लगा। मुनि सोमशर्मा ने उसे समझाया कि अब वह मुनिव्रत ग्रहण कर चुका है और अब उसके पास धन नहीं है। इस पर भी विष्णुशर्मा ने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी और अपना धन वसूलने के लिए आग्रह पर उतर आया। उधर नगर के मान्य श्रावक वहां पहुंचे और विष्णुशर्मा को समझाने का यत्न करने लगे। पर विष्णुशर्मा अपने धन की रट लगाता रहा। श्रावकों ने मुनि से सविनय बात का रहस्य पूछा तो मुनि ने पूरी घटना वर्णित कर दी कि गृहस्थ अवस्था में उसने कुछ धन विष्णुशर्मा से उधार लिया था और उसका भुगतान किए बिना ही उन्होंने प्रव्रज्या धारण कर ली। वस्तुस्थिति से भिज्ञ बनकर श्रावकों ने विष्णुदत्त से कहा कि उसके धन का भुगतान वे करेंगे। इस पर विष्णुशर्मा रोषारुण बन गया और बोला कि वह भिखारी नहीं है जो उनसे धन ले। वह उसी से धन लेगा जिसको उसने दिया है। समस्या जटिल थी। विष्णुशर्मा श्रमणधर्म की अवमानना करने पर उतारू था। आखिर मुनि ने कहा कि कल प्रभात में वे उसका धन लौटा देंगे, उन्हें एक दिन का समय दिया जाए। विष्णुदत्त शर्मा बोला, श्रमण के वचन पर विश्वास करके मैं इन्हें एक दिन का समय देता हूँ। कल अपना धन अवश्य वसूल कर लूंगा। दूसरे दिन प्रभात में मुनि श्मशान में बैठे चिन्तन कर रहे थे कि विष्णुशर्मा को धन लौटाना है, पर कैसे लौटाएं, मैं तो अकिंचन अणगार हूँ। मेरे कारण जिनत्व अपमानित हो रहा है। इस चिन्तन में लीन मुनि के नेत्रों से अश्रुधार बह चली। उधर एक व्यंतरी ने अपने ज्ञान में मुनि की मनोदशा को जाना। उसने मुनि के समक्ष प्रकट होकर प्रार्थना की, मुनिवर! आर्तध्यान से बाहर आइए। जिनधर्म आपके कारण कलंकित नहीं प्रशंसित होगा। कहकर व्यंतरी ने हीरों और मोतियों का विशाल देर लगा दिया। विष्णुशर्मा और अनेक श्रावक मुनि के पास पहुंचे। रत्नराशि का विशाल ढेर देखकर विष्णुशर्मा चमत्कृत हो गया। श्रावकगण ने मनि की जय-जयकार की। व्यंतरी ने प्रकट होकर कहा. निस्पह श्रमण से धन नहीं धर्म की याचना करनी चाहिए। धर्म के समक्ष धन का कुछ भी मूल्य नहीं है। विष्णुशर्मा को और अधिक धन की आकांक्षा है तो अपनी आकांक्षा वह प्रकट करे। विष्णुशर्मा गद्गद बन गया। उसके अन्तर्नेत्र खुल गए। वह उसी क्षण प्रव्रजित होकर श्रमण साधना में रत हो गया। मुनि सोमशर्मा निरतिचार संयम पाल कर मोक्ष में गए। -बृहत्कथा कोष, भाग 9-(आचार्य हरिषेण) (ख) सोमशर्मा बाहड़ देश का रहने वाला एक ब्राह्मण। वह ज्ञानावरणीय कर्म के प्रगाढ़-बन्धन के कारण विद्याध्ययन नहीं कर सका। किसी समय वह घूमते-भटकते मथुरा नगरी में पहुंचा। वहां पर उसे आचार्य प्रवर नन्दिमित्र के दर्शन हुए। आचार्य श्री का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हो आया और उसने प्रव्रज्या धारण कर ली। आचार्य श्री ने जान लिया था कि सोमशर्मा की मेधा स्थूल है। इसलिए उन्होंने उसे स्मरण करने के लिए एक छोटा सा पद दिया। वह पद था-नमः सिद्धम्। ... 698 ... ... जैन चरित्र कोश ...

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