Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 758
________________ कई वर्षों तक विशाला नगरी पर हरिबल ने शासन किया। जब उसका पुत्र युवा हो गया तो उसे राजगद्दी का दायित्व देकर अपनी तीनों पत्नियों के साथ वह कंचनपुर आया । अपनी पुत्री वसन्तश्री से मिलकर राजा अतीव प्रसन्न हुआ और उसने हरिबल को राजपाट प्रदान कर प्रव्रज्या धारण कर ली । अनेक वर्षों तक हरिबल ने सुशासन किया। अंत में राजपाट त्याग कर प्रव्रजित बन गया । उग्र संयम साधना से केवलज्ञान पाकर सिद्ध हुआ । - वर्धमान देशना 1 हरिभद्र (आचार्य) श्रमण परम्परा के उद्भट विद्वान जैन आचार्य । जैन आचार्यों की परम्परा में आचार्य हरिभद्र का स्थान तारामण्डल के मध्य चन्द्र तुल्य है। उनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार से है आचार्य हरिभद्र का जन्म चित्रकूट के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । वे वहां के राजा जितारि के राजपुरोहित थे। वैदिक दर्शन के वे प्रकाण्ड पण्डित और अपराजेय वादी थे। अपने युग के समस्त वादियों को उन्होंने शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था । इससे हरिभद्र के मस्तिष्क में अहंकार व्याप्त हो गया । ज्ञान भार से उदर न फट जाए इसलिए वे अपने पेट पर स्वर्ण पट्ट बांधे रहते थे। जमीन को खोद कर अपने प्रतिद्वन्द्वी को खोज निकालने के लिए अपने कन्धे पर कुदाल रखते थे । आसमान से प्रतिवादी को उतार लेने के लिए सोपान पंक्ति साथ रखते थे । जम्बूद्वीप में उन जैसा अन्य विद्वान नहीं है इसके प्रतीक के लिए जम्बू वृक्ष की शाखा अपने हाथ में रखते थे । वे अपने को कलिकाल सर्वज्ञ मानते थे । उन्होंने घोषणा की थी किसी के द्वारा उच्चारित पद का अर्थ यदि वे नहीं समझ पाएंगे तो उसे अपना गुरु मान लेंगे। एक बार रात्रि में हरिभद्र जैन उपाश्रय के निकट से गुजर रहे थे। उपाश्रय में विराजित याकिनी महत्तरा एक शास्त्रीय गाथा का उच्चघोष पूर्वक स्वाध्याय कर रही थी । गाथा के शब्द विद्वान हरिभद्र के कानों में पड़े। उन्होंने गाथा के अर्थ को समझने की कोशिश की। पुनः पुनः बुद्धि पर बल दिया, पर समझ न पाए। रात भर वे गाथार्थ के चिन्तन में विकल रहे । अर्थ न निकाल पाने के कारण पूर्ण प्रामाणिकता के साथ वे प्रभात में याकिनी महत्तरा के पास पहुंचे और गाथार्थ पूछा, साथ ही अपना निश्चय भी बताया कि वह उनका शिष्य बनने के लिए प्रस्तुत हैं। याकिनी महत्तरा विद्वान हरिभद्र को लेकर जिनदत्तसूरि के पास पहुंची। जिनदत्तसूरि ने गाथार्थ स्पष्ट किया। उन्होंने हरिभद्र की प्रार्थना पर उन्हें मुनिधर्म में प्रव्रजित किया। हरिभद्र वैदिक विद्वान तो थे ही । जैनागमों का भी उन्होंने गंभीरता पूर्वक अध्ययन किया। अल्प समय में ही वे आगम साहित्य के पारगामी पण्डित बन गए। गुरु ने उनको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । आचार्य हरिभद्रसूरि सत्य गवेषक श्रमण थे । उन्हें स्वमत से मिथ्यामोह और परमत से मिथ्या विरोध नहीं था। वे स्पष्ट कहते थे- मुझे महावीर के वचन से कोई पक्षपात नहीं है, कपिलादि के वचनों से कोई द्वेष नहीं है। जिनका वचन युक्तियुक्त है - वह ग्राह्य है । आचार्य हरिभद्र के जीवन से जुड़ी एक कथा विश्रुत है । आचार्य हरिभद्र के दो शिष्यों को बौद्धों ने मार दिया। हंस- परमहंस नामक उन शिष्यों पर आचार्य श्री का विशेष अनुराग भाव था। शिष्यों की हत्या कर दिए जाने से आचार्य हरिभद्र को भारी आघात लगा । वे रोषारुण बन गए। रात्रि में विद्या बल से उन्होंने 1444 बौद्ध भिक्षुओं को बन्धन ग्रस्त कर आहूत किया । उबलते तेल के कड़ाहे में उन भिक्षुओं की बलि देने के लिए हरिभद्र मन्त्र पाठ करने लगे। इस घटना की सूचना से सर्वत्र हलचल मच गई। आचार्य हरिभद्र की धर्ममाता याकिनी महत्तरा रात्रि में ही उपाश्रय में पहुंची और द्वार खटखटाया। आचार्य हरिभद्र ने अन्दर से ••• जैन चरित्र कोश 717

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