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जहां कफन ही नहीं है वहां आधे कफन का प्रश्न ही अनुचित है। परन्तु हरिश्चन्द्र ने अपनी मर्यादा की बात दोहराकर रानी को विवश कर दिया कि आधा कफन देकर ही वह अपने पुत्र का अग्नि संस्कार कर सकती है।
पति की मर्यादा की रक्षा के लिए महारानी सुतारा ने अपनी आधी साड़ी को फाड़कर कर रूप में उन्हें प्रदान किया। सत्य के परीक्षक देव उससे आगे न बढ़ सके। प्रस्तर पिघल गए। देवगण हरिश्चन्द्र के चरणों पर अवनत हो गए। रोहिताश्व जीवित हो गया। देवों ने स्पष्ट किया कि उनके सत्य की परीक्षा के लिए यह पूरा उपक्रम किया गया था। पलक झपकते से हरिश्चन्द्र पत्नी और पुत्र के साथ अयोध्या पहुंच गए। वे पूर्ववत् राजा हो गए। देवों ने महाराज हरिश्चन्द्र के चरणों पर अवनत बनकर उन्हें वरदान मांगने को कहा। परन्तु हरिश्चन्द्र तो देना ही जानते थे। मांगना तो उन्होंने जाना ही नहीं था। पर देवों द्वारा बाध्य किए जाने पर महाराज हरिश्चन्द्र ने कहा, देवो ! यदि देना ही चाहते हो तो वचन दो कि ऐसी परीक्षा फिर कभी किसी मनुष्य की नहीं लोगे। गद्गद होकर देवों ने वचन दिया और हरिश्चन्द्र का यशगान करते हुए अपने लोक को चले गए। रोहिताश्व के युवा होने पर उसे राजगद्दी पर बैठाकर महाराज हरिश्चन्द्र और महारानी सुतारा संयमपथ के पथिक बन गए। निरतिचार चारित्र की आराधना करके और कैवल्य प्राप्त कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए।
-हरिश्चन्द्र राजानो रास, श्री कनक सुन्दर कृत (क) हरिसेन
उज्जयिनी नगरी का राजा। (दखिए-भीमसेन) (ख) हरिसेन (चक्रवर्ती) ___ दसवें चक्रवर्ती के रूप में हरिसेन कपिलपुर नरेश महाहरि की रानी महिषी के गर्भ से उत्पन्न हुए। युवावस्था में राजा बने और फिर षट्खण्ड साधकर चक्रवर्ती बने। सुदीर्घ काल तक शासन करने के पश्चात् आत्महित के लिए प्रव्रजित हुए और साधना से कैवल्य को साधकर निर्वाण को प्राप्त हुए।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र हस्तिपाल राजा
___ भगवान महावीर का अनन्य उपासक और पावापुरी नगरी का राजा। उसकी भावभीनी प्रार्थना को मान देकर प्रभु ने उसकी रथशाला में अन्तिम वर्षावास किया था और वहीं से निर्वाण पद प्राप्त किया था।
-समवायांग सूत्र हस्तीमित्र
उज्जयिनी नगरी का एक धनी सेठ। कालान्तर में अपने पुत्र के साथ उसने एक जैन आचार्य से आहती प्रव्रज्या अंगीकार की। किसी समय सघन वन में विहार करते हुए मुनि हस्तीमित्र की देह क्लान्त हो गई। यात्रा को जारी रख पाना उनसे संभव नहीं हुआ। आचार्य से आज्ञा प्राप्त कर उन्होंने वहीं संथारा कर लिया। आचार्य आगे विहार कर गए, पर पुत्र मुनि पितृप्रेम वश वहीं रुक गया। वह पितृसेवा में जुट गया। कुछ काल बाद हस्तीमित्र मुनि का स्वर्गवास हो गया। देवलोक में उत्पन्न होकर उन्होंने अवधिज्ञान से देखा, उनका पुत्रमुनि उनके कलेवर की सेवा में रत है। पुत्रमुनि की दृढ़धर्मिता की परीक्षा लेने देव उस कलेवर में प्रविष्ट हो गया। उसने पुत्र मुनि को आदेश दिया कि वह जंगल से कंदमूल खाकर अपनी क्षुधा शान्त कर ... 720
- जैन चरित्र कोश ...