Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 757
________________ उधर राजा ने वसन्तश्री को अपने वश करना चाहा। उसे प्रेम और भय दोनों विधियों से अपनी रानी बनने के लिए मनाया, पर वसन्तश्री की दृढ़धर्मिता के समक्ष राजा की दाल न गली। उचित समय पर हरिबल कुसुमश्री के साथ विशाला लौटा। राजा उसकी सकुशल वापसी पर सन्न रह गया। मन मारकर उसने हरिबल का स्वागत उत्सव आयोजित किया और मनोभाव छिपाकर उसकी सफलता की भी प्रशंसा की। वसन्तश्री ने पूरी बात हरिबल को कही। हरिबल ने बुद्धिमत्ता इसी में मानी की राजा से सावधान रहा जाए। उधर राजा और मंत्री हरिबल रूपी कांटे को निकालने के लिए नित नई योजनाएं बनाते। अंततः उन्होंने एक योजना बनाई। योजनानुसार राजा ने हरिबल को अपने पास बुलाकर आदेश दिया कि वह यमपुरी नरेश महाराज यमराज को भी स्वयंवर में पदार्पण का निमंत्रण-पत्र देकर आए। हरिबल को अपने मित्र देव पर भरोसा था ही, सो उसने राजा का आदेश स्वीकार कर लिया। घर आकर उसने मित्र देव का स्मरण किया। देव उपस्थित हुआ। पूरी बात सुनकर देव ने कहा, हरिबल! तुम घर पर सानन्द रहो। तुम्हारा रूप धर कर शेष कार्य मैं करूंगा। कहकर देव हरिबल का रूप धरकर राजा के पास पहुंचा। उसने कहा, यमपुरी जाने के लिए देहत्याग करना होगा अतः नगर के बाहर चिता बनवाई जाए जिसमें प्रवेश कर मैं देहोत्सर्ग करूं । सुनकर राजा को लगा कि अब शीघ्र ही उसके मन की मुराद को मंजिल मिलने वाली है। हरिबल के चिता-प्रवेश करते ही उसकी दोनों पत्नियों को वह अपनी रानी बना लेगा। ऐसा सोचते हुए राजा ने शीघ्र ही अनुचरों को आदेश देकर नगर के बाहर चिता तैयार कराई। राजा और नगरजनों की विशाल उपस्थिति में हरिबल रूपी देव ने चिता में प्रवेश कर देहोत्सर्ग कर दिया। राजा के हर्ष का पार न था। रात्रि घिरते ही वह हरिबल के घर पहुंचा। हरिबल छिपकर राजा की करतूत देखने लगा। राजा ने वसन्तश्री और कुसुमश्री से कहा, अब हरिबल लौटने वाला नहीं है। तुम मेरे साथ महलों में चलो और राजरानी बनकर सुख भोगो। वसन्तश्री और कुसुमश्री ने राजा के प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि उनके पति उनके मन में बसे हैं। पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का स्वप्न-चिंतन भी उनके लिए पाप है। राजा ने सीधे शब्दों में बात बनते न देखकर लपककर कुसुमश्री का हाथ पकड़ना चाहा। कुसुमश्री ने विद्या बल से अपार बल अपने शरीर में प्रगट किया और पाद प्रहार से राजा को धूल चटा दी। बन्धनों में बांधकर एक कोने में राजा को डाल दिया। राजा सहम गया। उसने अनुनय-विनयपूर्वक अपनी मुक्ति की प्रार्थना की और गिड़गिड़ाते हुए बोला कि अब वह स्वप्न में भी उनका चिंतन नहीं करेगा। आखिर कुसुमश्री ने राजा को मुक्त कर दिया। उधर कुछ दिन बाद देव के परामर्श पर हरिबल राजदरबार में पहुंचा। उसे देखकर राजा, मंत्री और सभासद दंग रह गए। राजा की प्रार्थना पर हरिबल ने यमपुरी की कल्पित यात्रा-कथा सुनाई और कहा, महाराज यम का आदेश है कि अगर राजा और मंत्री स्वयं उनके पास उपस्थित होकर उन्हें स्वयंवर में आगमन का निमंत्रण देंगे तो वे अवश्य ही स्वयंवर में पधारेंगे। राजा और मंत्री यमपुरी जाने को तैयार हो गए। चिता सजी। पहले मंत्री ने चिता में प्रवेश किया और जल मरा। राजा चिता में प्रवेश करने लगा तो हरिबल ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, महाराज! पाप-मंत्रणाएं देने वाला मंत्री अपने अपराध का दण्ड पा चुका है। ऐसे मंत्रियों से आप सावधान रहें। कहकर हरिबल ने वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी। इससे राजा का हृदय परिवर्तन हो गया। उसने हरिबल को गले से लगा लिया और उसी से अपनी पुत्री का विवाह करके उसे राजपद प्रदान किया। संसार त्याग कर राजा प्रव्रजित हो गया। ...716 ... जैन चरित्र कोश ...

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