Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 755
________________ एक बार भद्रा नामक एक राजकन्या ने मुनि हरिकेशी का अपमान किया तो यक्ष ने उसे अचेत कर दिया। राजा द्वारा क्षमा मांगने पर उसने भद्रा का विवाह मुनि से करने को कहा। राजा ने वैसा ही किया। पर ध्यान पूरा होने पर मुनि ने भद्रा को अस्वीकार कर दिया। नीति के अनुसार भद्रा का पुनर्विवाह रुद्रदत्त पुरोहित से किया गया। पुरोहित ने भद्रा के शुद्धिकरण के लिए विशाल यज्ञ किया और विविध भोजन सामग्री भोज के निमित्त से बनवाई। संयोग से हरिकेशी मुनि मासोपवास के पारणे के लिए भिक्षार्थ यज्ञ मण्डप में आ गए। ब्राह्मणों ने मुनि का तिरस्कार कर दिया। क्रोधित होकर यक्ष ने सब ब्राह्मणों को रुग्ण कर दिया। सभी रक्तवमन करने लगे। रुद्रदत्त और भद्रा को घटना की सूचना मिली तो वे मुनि के चरणों में पहुंचे और ब्राह्मणों के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगे। यक्ष ने प्रसन्न बन सभी को स्वस्थ कर दिया। हरिकेशी मुनि उग्र तपश्चरण और निरतिचार संयम साधना द्वारा सर्व कर्मों से विमुक्त बनकर निर्वाण को उपलब्ध हुए। -उत्तराध्ययन-12 हरिचन्दन गाथापति साकेत नगर के एक सम्पत्तिशाली गाथापति। भगवान महावीर के उपदेश से प्रतिबुद्ध बनकर वे दीक्षित हुए। बारह वर्षों तक निरतिचार संयम पालकर विपुलाचल से सिद्ध हुए। -अन्तगडसूत्र वर्ग 6, अध्ययन 8 हरिनन्दी उज्जयिनी नगरी का रहने वाला एक वणिक। उसकी एक छोटी सी दुकान थी, जिसके द्वारा वह अपना और परिवार का उदर पोषण करता था। एक बार उसे घेवर खाने का मन हुआ। उसने पत्नी को घेवर बनाने के लिए सभी सामग्री दी और घेवर बनाने को कहा। संध्या समय जब वह घर पहुंचा तो उसकी पत्नी ने प्रतिदिन की भांति उसे खाने को सूखी रोटी दी। उसने घेवर के बारे में पूछा तो पत्नी ने कहा, जंवाई राजा आए थे और सारा घेवर उन्हीं को परोस दिया गया। घटना छोटी सी थी, पर हरिनन्दी के लिए यह घटना बहुत बड़ी बन गई। उसका मन उचट गया। दूसरे दिन उदास चित्त से वह कहीं जा रहा था तो उसे एक मुनि दिखाई दिए। वह मुनि के चरणों में जाकर बैठ गया। मुनि ने अपने ज्ञानबल से पहचान लिया कि हरिनन्दी भव्य प्राणी है। उसके लिए छोटा सा सूत्र भी भवसागर से पार जाने वाली नौका बन सकता है। मुनि ने उसे संक्षेप में धर्म का सार बताया और स्पष्ट किया-संसार में अर्जित धन को बहुधा दूसरे बांट लेते हैं पर आध्यात्मिक क्षेत्र में अर्जित धर्म रूपी धन को कोई नहीं बांट सकता है, धर्म व्यक्ति की निजी पूंजी बन जाता है। अतः बाह्य धन मिथ्या है, धर्मरूपी धन ही वास्तविक धन है। ___मुनि के इस छोटे से उपदेश से ही हरिनन्दी प्रबुद्ध बन गया। उसने संसार को त्याग कर प्रव्रज्या धारण कर ली और निरतिचार संयम साधना से मोक्ष प्राप्त किया। -धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 47 हरिबल ____ हरिबल कंचनपुर नगर का रहने वाला एक निर्धन धीवर था। निर्धन होने पर भी वह साहसी, दृढ़ निश्चयी और गणानरागी था। उसकी पत्नी का नाम प्रचण्डा था जो यथानाम तथागण थी। समद्र में जाल फैलाकर मछलियां पकड़ना और उन्हें बेचकर उदरपूर्ति करना हरिबल की दिनचर्या थी। एक बार जब हरिबल मछलियां पकड़ने कि लिए सागर तट की ओर जा रहा था तो उसे एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि ने हरिबल को अहिंसा की महिमा समझाई और मछली व्यवसाय के परित्याग की प्रेरणा दी। हरिबल ने कहा कि वह ...714 .. 2. जैन चरित्र कोश...

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