Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 687
________________ पहुंचे, उन्होंने सिद्धसेन को नहीं पहचाना। उनसे पूछा-तुम देव प्रतिमा को वन्दन क्यों नहीं करते? इस प्रश्न पर सिद्धसेन बोले, सुनो राजन् ! यह प्रतिमा मेरा वन्दन सहन नहीं कर पाएगी। राजा ने कहा, जो भी हो, तुम इसे वन्दन करो। ___ आखिर सिद्धसेन शिवप्रतिमा के समक्ष बैठ गए और स्तुति पाठ करने लगे। उन द्वारा पढ़ा गया वह स्तुति पाठ 'कल्याण-मंदिर' स्तोत्र के रूप में आज भी मौजूद है। ग्यारहवां पद बोलते ही शिव प्रतिमा फट गई और उसके भीतर से पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई। राजा प्रजा इस चमत्कार को देखकर चकित रह गए। जिनधर्म और आचार्य सिद्धसेन के जयगानों से चतुर्दिक् गूंज उठे। महान धर्म प्रभावना का प्रकरण देखकर संघ ने आचार्य सिद्धसेन को संघ में सम्मिलित कर पुनः आचार्य पद पर आरूढ़ किया। कालान्तर में आचार्य सिद्धसेन भृगुकच्छ नगर में पधारे। वहां के राजा धनंजय ने आचार्य श्री का स्वागत किया। एकदा धनंजय भी शत्रुसेना से घिरा तो आचार्य श्री ने सर्षप विद्या प्रयोग से उसे विजयी बनाया। इस चामत्कारिक घटना से धनंजय राजा आचार्य श्री का अनन्य भक्त और श्रमणोपासक बन गया। आचार्य सिद्धसेन ने पर्याप्त साहित्य की रचना की। उन द्वारा सृजित कुछ साहित्य वर्तमान में भी उपलब्ध है। बत्तीस द्वात्रिंशिकाएं, सन्मतितर्क, नयावतार, कल्याण मंदिर स्तोत्र उनकी कालजयी रचनाएं __ आचार्य सिद्धसेन दिवाकर निःसंदेह श्रमण परम्परा के क्षितिज के दिवाकर थे। उनका समय वी.नि. की 10वीं-11वीं शताब्दी माना जाता है। -प्रभावक चरित्र (क) सिद्धार्थ ___ छम्माणि ग्रामवासी एक धर्मात्मा सद्गृहस्थ। भगवान महावीर के कानों में एक ग्वाले ने कीलें ठोक दी थीं। पारणे के लिए भगवान संयोग से सिद्धार्थ के घर पधारे। प्रभु की दशा देख सिद्धार्थ स्तंभित बन गया। प्रभु के लौटने के पश्चात् वह अपने मित्र खरक वैद्य को साथ लेकर तथा तैल, औषध, संडासी आदि सहित उस स्थान पर गया जहां प्रभु ध्यानावस्थित थे। उसके सहयोग से खरक ने प्रभु का उपचार किया और उन्हें शल्यमुक्त किया। (ख) सिद्धार्थ (आचार्य) निषधकुमार के वीरंगत भव के धर्माचार्य। (ग) सिद्धार्थ राजा कुण्डलपुर अथवा क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर के राजा एवं चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के पिता। सिद्धार्थ एक न्यायशील नरेश और धर्मपरायण पुरुषरत्न थे। प्रभु पार्श्व की धर्म परम्परा के वे श्रावक थे। अंतिम तीर्थंकर के जनक के रूप में उनकी कीर्ति-कौमुदी सदियों से लोक में परिव्याप्त है और भविष्य में भी रहेगी। -सिद्धार्था भगवान अभिनन्दन की माता। (क) सीता मिथिलाधिपति महाराज जनक की पुत्री, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की अर्धांगिनी और विश्ववन्या ... 646 ... जैन चरित्र कोश ...

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