Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 732
________________ एक बार राजकुमार संप्रति ने राजपथ पर विहार करते हुए आचार्य सुहस्ती को देखा । अपने परमोपकारी गुरु को देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । प्रासाद से नीचे आकर वह गुरु चरणों पर प्रणत हो गया और उसने अपना परिचय आचार्य सुहस्ती को दिया। उसने कहा, भवगन ! आपकी अकारण करुणा-वत्सलता यह फल है जो आज मैं राजकुमार के रूप में हूँ। मेरे लिए आदेश करें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं । आचार्यश्री ने राजकुमार सम्प्रति को उपदेश दिया और फरमाया कि जिनधर्म उभय लोक में कल्याणकारी है, उसी का तुम अनुगमन करो। सम्प्रति ने आचार्य श्री के कथन को प्रणत भाव से हृदयंगम किया और वह व्रतधारी श्रावक बन गया। राजपद प्राप्त करने के बाद सम्प्रति ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कई महनीय कार्य किए। उसने आन्ध्र आदि अनार्य प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार कराया और वह क्षेत्र श्रमणों के विहार के अनुकूल बनाया। आचार्य सुहस्ती के जीवन से जुड़े कई कथा-प्रसंग प्रचलित हैं जो उनकी महानता को सहज सिद्ध करते हैं। वे असंख्य लोगों के लिए कल्याण का द्वार बने थे। उनके जीवन से सम्बद्ध अयवंती सुकुमाल का प्रसंग भी काफी रोचक है। आचार्य श्री की स्वाध्याय के पद सुनकर भद्रापुत्र अयवंती सुकुमाल को जाति - स्मरण ज्ञान हो गया और बत्तीस पत्नियों के अनुराग तथा मातृममत्व का परिहार कर वह आचार्य श्री का शिष्य बन गया। आचार्य श्री से विशेष साधना की अनुज्ञा प्राप्त कर वह अवन्ती के श्मशान की दिशा में चल दिया। वह सुकोमल गात्र था। नंगे पैर चलने से पांवों से रक्त बहने लगा। पर समता भावी मुनि ने पूर्ण समता बनाए रखी। वह मुनि श्मशान में जाकर ध्यानस्थ हो गया। रात्रि में रक्त गन्ध से आकृष्ट बनी एक श्रृगाली अपने शिशु परिवार सहित वहां आ पहुंची। वह श्रृगाली मुनि के पैरों पर लगे रक्त को चाटने लगी । मुनि समाधि भाव में लीन रहे और उन्होंने शृगाली का प्रतिरोध नहीं किया । शृगाली ने मुनि के घायल पैर का भक्षण करना शुरू कर दिया। क्रमशः जंघा और उदर को भी उसने अपने शिशुओं के साथ उदरस्थ कर लिया । महान समता साधक अयवंती सुकुमाल देहोत्सर्ग करके नलिनीगुल्म विमान में देव बने । दूसरे दिन सुकुमाल की पलियों ने मुनि परिषद् में सुकुमाल को नहीं देखा तो आचार्य श्री से उनके बारे में पूछा। आचार्य सुहस्ती ने अथान्त वृत्त का वर्णन किया । श्रोतागण रोमांचित हो उठे। माता भद्रा और उसकी इकतीस पुत्रवधुओं ने उसी दिन प्रव्रज्या धारण कर ली। अयवंती सुकुमाल की एक पत्नी ने सगर्भा होने के कारण प्रव्रज्या नहीं ली । कालक्रम से उसने पुत्र को जन्म दिया । कालान्तर में उस पुत्र ने अपने पिता की महाकालजयी साधना की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए श्मशान में एक मंदिर बनवाया। वह मंदिर महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । आज भी उज्जैन में उस मंदिर की भारी मान्यता है । आचार्य सुहस्ती के कई शिष्य हुए । उनके 12 शिष्यों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। (1) आर्य रोहण (2) यशोभद्र (3) मेघवाणी (4) कामर्द्धि गणी (5) सुस्थित ( 6 ) सुप्रतिबुद्ध ( 7 ) रक्षित (8) रोहगुप्त (9) ऋषिगुप्त ( 10 ) श्री गुप्त ( 11 ) ब्रह्मगणी ( 12 ) सोमगणी | आचार्य सुस्ती के शासन काल में जिनधर्म का प्रभूत प्रसार हुआ। वे 46 वर्षों तक युगप्रधान पद पर रहे । वी.नि. 292 में उनका स्वर्गारोहण हुआ । - नन्दी सूत्र / बृहत्कल्प भाष्य, विभाग 3 / परिशिष्ट पर्व, सर्ग 11 सुहाग सुंदरी श्रीपुर नगर की राजकुमारी (देखिए - धनसागर ) ••• जैन चरित्र कोश

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