Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 731
________________ (ख) सुस्थित (देव) लवण समुद्र का अधिष्ठाता देव। (देखिए-जिनपाल) सुस्थिर (आचार्य) (देखिए-चन्दन राजा) सुहस्ती (आचार्य) तीर्थंकर महावीर के दसवें पट्टधर और दस पूर्वधर एक महान प्रभावशाली आचार्य। उन्होंने आचार्य स्थूलभद्र से दीक्षा धारण की थी और आचार्य महागिरि उनके गुरुभाई तथा शिक्षा-गुरु थे। आचार्य स्थूलभद्र ने महागिरि और सुहस्ती-इन दोनों को आचार्य पद प्रदान किया था, पर सुहस्ती सदैव महागिरि को गुरु तुल्य और अपना धर्मनेता मानते रहे। उनकी विरल विनय वृत्ति का यह प्रमाण है। आर्य सुहस्ती का जन्म वी.नि. 191 में हुआ। उनका गोत्र विशिष्ट था। यक्षा आर्या के सान्निध्य में उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। युवक सुहस्ती ने वी.नि. 215 में आचार्य स्थूलभद्र से मुनिव्रत ग्रहण किया। आचार्य स्थूलभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् वे महागिरि के सान्निध्य में रहे और दस पूर्वो का ज्ञान ग्रहण किया। कालान्तर में आर्य सुहस्ती को सर्वविध सुयोग्य अनुभव करते हुए संघ संचालन के समस्त दायित्व उन्हें देकर आचार्य महागिरि विशिष्ट साधना में संलग्न हो गए। आचार्य सुहस्ती ने कुशलता से संघ के दायित्व का निर्वाह किया। उनके शासन काल में अर्हत् संघ की काफी प्रभावना हुई। सम्राट्-सम्प्रति उनका अनन्य भक्त था। उसने आचार्य श्री के धर्मशासन के प्रचार-प्रसार मे अपूर्व सहयोग प्रदान किया। आचार्य श्री के प्रति सम्प्रति के अनन्य समर्पण और श्रद्धाभाव के पीछे एक तथ्य था, जो इस प्रकार है___आचार्य सुहस्ती श्रमण संघ के साथ कौशाम्बी नगरी में विराजित थे। उस समय भीषण दुष्काल चल रहा था। प्रजा अन्न के कण-कण के लिए तड़प रही थी। परन्तु इस स्थिति में भी समृद्ध जैन श्रेष्ठी अपने गुरुओं के आहारादि के प्रति विशेष जागरूक थे। श्रमणों के आहार-विहार का समुचित ध्यान रखा जा रहा था। एक दिन आचार्य सुहस्ती के शिष्य श्रेष्ठी गृह से आहार प्राप्त कर रहे थे। एक क्षुधातुर रंक ने आहार दान की इस घटना को देखा। मुनिजन आहार ग्रहण करके उपाश्रय की ओर प्रस्थित हुए। क्षुधातुर रंक मुनियों के पीछे-पीछे चलने लगा। उसने मुनियों से आहार की याचना की। मुनियों ने कहा, हम अपने गुरु की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करते हैं। रंक मुनियों का अनुगमन करता हुआ आचार्य सुहस्ती के पास पहुंचा और उनसे आहार की याचना की। आचार्य सुहस्ती ज्ञानी पुरुष थे। उन्होंने रंक के भावी जीवन पर दृष्टिपात किया और जाना कि यह आत्मा भविष्य में जिनशासन की अतिशय प्रभावना करने में सहयोगी होगी। ऐसा जानकर आचार्य श्री ने उस रंक से कहा, बन्धु! यदि तुम मुनि-जीवन स्वीकार करो तो हम साधु-मर्यादानुसार तुम्हें आहार दे सकते हैं। रंक ने क्षुधा से मरने के बजाय कठोर मुनि जीवन को अंगीकार करना उचित समझा। वह मुनि बनने के लिए तत्क्षण तैयार हो गया। आचार्य श्री ने उसे दीक्षित किया और उसे आहार भी प्रदान किया। वह कई दिनों का भूखा था। उसने भर पेट भोजन किया।मात्रातिक्रान्त भोजन करने से उसकी श्वासनलिका अवरुद्ध-प्रायः हो गई। रात्रि में ही समाधि पूर्वक उसका निधन हो गया। उसकी अल्पकालिक मुनि साधना के परिणाम में उसे राजपुत्र होने का गौरव प्राप्त हुआ। वह सम्राट अशोक के पौत्र और कुणाल के पुत्र रूप में जन्मा जहां उसे संप्रति नाम प्राप्त हुआ। ... 690 ... .. जैन चरित्र कोश ....

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