Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 685
________________ आचार्य सिद्धर्षि एक कुशल साहित्य साधक थे। 'उपमिति भव प्रपञ्च कथा' उनकी एक श्रेष्ठ रचना -प्रभावक चरित्र सिद्धसेन दिवाकर (आचार्य) एक सुप्रसिद्ध और उच्चकोटि के साहित्यकार जैन आचार्य। सिद्धसेन दिवाकर स्वतन्त्र चिन्तक और क्रान्तद्रष्टा आचार्य थे। उनकी लेखनी से निसृत साहित्य श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रामाणिक और आदरास्पद माना जाता है। ___जैन दीक्षा लेने से पूर्व ही सिद्धसेन भारत के विश्रुत विद्वान थे। उनका जन्म उज्जयिनी नगरी के कात्यायन गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम देवर्षि और माता का नाम देवश्री था। उस समय उज्जयिनी पर महाराज विक्रमादित्य का शासन था। देवर्षि राजमान्य ब्राह्मण थे। सिद्धसेन बाल्यकाल से ही अध्ययनशील और उत्कृष्ट मेधा सम्पन्न थे। वेदों, वेदांगों और शास्त्रों का उन्होंने तलस्पर्शी अध्ययन किया था। वे संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। साथ ही वाद कला में भी वे प्रवीण थे। अपने युग के समस्त वादियों को उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। इससे सिद्धसेन में अहंकार भी उत्पन्न हो गया था। उन्होंने घोषणा की थी कि-शास्त्रार्थ में उन्हें जो पराजित करेगा वे उसे अपना गुरु मान लेंगे। उधर वृद्धवादी नामक जैन आचार्य की ख्याति भी भारत भर में प्रसृत हो रही थी। सिद्धसेन स्वयं के अतिरिक्त किसी की ख्याति कैसे सह पाते? आचार्य वृद्धवादी को शास्त्रार्थ में परास्त करने के लिए वे उतावले बन गए और उन्हें खोजने निकले। आखिर अवन्ती के निकटस्थ वन में सिद्धसेन और वृद्धवादी की परस्पर भेंट हुई। सिद्धसेन ने वृद्धवादी को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। वृद्धवादी ने उनका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, शास्त्रार्थ के लिए समुचित स्थान तय कर लीजिए, मैं उपस्थित हो जाऊंगा। पर सिद्धसेन तो शीघ्रता में थे। प्रतीक्षा उनके लिए सह्य नहीं थी। उन्होंने कहा, यहां गोपाल हैं, उन्हें ही निर्णायक मानकर शास्त्रार्थ होगा। वृद्धवादी उसके लिए भी सहमत हो गए। अपना पक्ष रखने का प्रथम अवसर सिद्धसेन को प्राप्त हुआ। सिद्धसेन ने सर्वज्ञ-निषेध पर संस्कृत भाषा में धारा प्रवाह बोलना शुरू कर दिया। परन्तु उनका वाग्विलास ग्वालों को कुछ समझ नहीं पड़ा। ग्वालों ने उन्हें अपना वक्तव्य रोक देने के लिए कहा। तब वृद्धवादी ने सर्वज्ञ-सिद्धि पर प्राकृत भाषा में अपनी बात कही। उनकी भाषा में सरलता और माधुर्य था। ग्वालों ने उसे सरलता से समझा और वृद्धवादी को विजेता घोषित कर दिया। सिद्धसेन का दंभ गल गया और वे वृद्धवादी के शिष्य बनने को तैयार हो गए। इस पर वृद्धवादी ने कहा, राजसभा में विद्वानों के समक्ष भी मैं वाद के लिए तैयार हूँ, क्योंकि विद्वद्सभा में ही सत्य का निर्णय संभव है। अंततः महाराज विक्रमादित्य की सभा में आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन के मध्य शास्त्रार्थ हुआ। वहां पर भी आचार्य वृद्धवादी विजयी रहे। सिद्धसेन ने ब्राह्मण धर्म का त्याग कर श्रमण धर्म अंगीकार कर लिया और वे वृद्धवादी के शिष्य बन गए। एक विद्वान व्यक्ति को शिष्य रूप में पाकर वृद्धवादी को अपार हर्ष हुआ। कुछ समय बाद उन्होंने सिद्धसेन को आचार्य पद पर आसीन किया तथा स्वतंत्र विहार का आदेश दिया। ___आचार्य सिद्धसेन स्वतंत्र विचरण कर जिनधर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। अपने युग के कई राजाओं को उन्होंने प्रभावित कर जैन धर्मी बनाया। एक बार आचार्य सिद्धसेन अवन्ती के राजपथ से कहीं जा रहे थे। भारी जन समूह उनकी जय-जयकार करते हुए उनके पीछे चल रहा था। उधर से विक्रमादित्य की सवारी आ रही थी। विक्रमादित्य ने मन ही मन आचार्य श्री को प्रणाम किया। विक्रमादित्य के निकट आने पर . .. जैन चरित्र कोश...

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