Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 719
________________ स्वभाव का था। सहपाठियों की पुस्तकें फाड़ देना, उनकी पट्टिकाओं को तालाब में फैंक देना आदि कार्यों में उसे बड़ा रस था। परिणाम यह हुआ कि शिक्षक ने उसके पिता से उसकी शिकायत की और विद्यालय से निकाल देने की चेतावनी तक दे डाली। इस पर खीझकर नटखट ने पत्थर मारकर अध्यापक का सिर फोड़ डाला। इससे उसको विद्यालय से निकाल दिया गया। तिराहों, चौराहों, शून्य गृहों, धर्मशालाओं आदि में घूमकर नटखट अपना दिन पूरा करता और प्रतिदिन अनेक ऐसे कार्य करता जिससे उसके पिता के पास उपालंभों की कतार लग जाती। माता-पिता पुत्र को समझा-बुझाकर थक गए तो उन्होंने लोगों से कह दिया कि वे जैसा चाहें वैसा दण्ड नटखट को दें। लोग सचेत हो गए। कई लोगों ने कई प्रसंगों पर नटखट की पिटाई कर डाली। पर जिसने भी उसे पीटा उसे ही सबक सिखाया कि उसे उसके देवता याद आ गए। आखिर लोग नटखट से बचकर चलने में ही अपनी भलाई मानने लगे। नटखट युवा हुआ, पर उसके स्वभाव में कहीं कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पिता ने यह सोचकर उसका विवाह कर दिया कि संभव है पत्नी उसके भीतर कुछ दायित्व-बोध जगा सके। श्रीमती नामक उसकी पत्नी एक आदर्श नारी के गुणों से सम्पन्न और जिनोपासिका थी। उसने पति को सुधारने के अनेक प्रयत्न किए। पर नटखट नहीं सुधरा। इतना अंतर जरूर आ गया कि विवाह के पश्चात् उसकी शरारतों में गुणवत्ता आ गई। वह स्वयं छिपकर लोगों के काम बिगाड़ता और प्रगटतः उनकी सहायता करके वाहवाही लूटता। उसे दो विचित्र जड़ी-बूटियां हाथ लग गईं। उनमें से एक के सुंघाने से व्यक्ति मूर्छित हो जाता और दूसरी के सुंघाने से मूर्छित व्यक्ति होश में आ जाता। वह प्रतिदिन छिपकर लोगों को मूर्च्छित करता और प्रगटतः उनकी मूर्छा का उपचार करता। इससे उसकी ख्याति फैल गई। अनेक लोग उसके मित्र बन गए। श्रीपुर नरेश कुसुम सिंह का पुत्र कुसुमसेन भी उसका परम मित्र बन गया। एक बार नटखट ने एक विचित्र नाटक किया। उसने राजकमार को मर्छित कर दिया और रात्रि में उसे नगर की गणिका के द्वार पर खड़ा कर दिया और द्वार पर दस्तक देकर गायब हो गया। गणिका ने द्वार खोला। द्वार खलते ही द्वार के सहारे खडा मर्छित राजकमार गिर पड़ा। गणिका ने गौर से देखा तो वह सहम गई। उसे अपनी मृत्यु साक्षात् दिखाई देने लगी। वह स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली लेकर नटखट के घर पहुंची और स्वर्ण मुद्राएं नटखट को अर्पित करके बोली किसी तरह राजकुमार का उपचार कर दो अन्यथा मैं निर्दोष मारी जाऊंगी। मन में मुस्काते हुए नटखट ने गणिका को आश्वस्त किया। वह उसके साथ उसके घर गया और राजकुमार को कन्धे पर डालकर बोला, गणिका ! तुम निश्चिन्त रहो। मैं राजकुमार को स्वस्थ करके राजमहल पहुंचा दूंगा। उस रात नटखट ने कई लोगों के द्वारों पर राजकुमार को रखा और पर्याप्त धन अर्जित किया। आखिर में राजमहल के द्वार पर रखा। राजा भी पुत्र की दशा देखकर घबराया और नटखट की शरण में पहुंचा। नटखट ने राजकुमार का उपचार किया। राजा इतना कृतज्ञ हुआ कि उसने नटखट को प्रभूत पुरस्कार दिया और नगरसेठ का पद देकर उसे सम्मानित किया। प्रचुर धन और पद प्राप्त कर नटखट अपनी पत्नी के पास पहुंचा और उसने अपने चातुर्य की शेखी बघारी। सारी बात सुनकर श्रीमती नटखट के चातुर्य के प्रति वितृष्णा से भर गई। ___उसने उपालंभ पूर्ण कठोर वचनों से उसे फटकार पिलाई और कहा कि वह उसके साथ जीवन नहीं बिता पाएगी वह तो दीक्षित होकर आत्मकल्याण करेगी। नटखट का अपनी पत्नी पर अनुराग भाव था। उसकी कठोर फटकार ने उसके हृदय को छू लिया। वह अपनी पत्नी के साथ ही नगर के बाहर उपवन में ... 678 .... जैन चरित्र कोश ...

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