Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 717
________________ अनशन और आध्यात्मिक चिन्तन में संलग्न मुनि सुमतिसागर ने केवलज्ञान साध कर मोक्ष प्राप्त किया । सुमनचन्द्र महाविदेह क्षेत्र के एक नगर में रहने वाले एक सद्गृहस्थ । उनकी पत्नी का नाम शीलवती था । पत्नी-पति के मध्य सघन प्रीतिभाव और विश्वास था । सुमनचन्द्र पत्नीव्रत धर्म के पालक थे और शीलवती पतिव्रत धर्म पर अपने प्राण न्यौछावर करती थी। एक बार व्यापार के लिए सेठ को देशान्तर जाना पड़ा। उन्होंने अपने मित्र धनदत्त को उनकी अनुपस्थिति में उनका व्यवसाय और पारिवारिक सार-संभाल का दायित्व प्रदान किया। सेठ के विदा हो जाने के बाद धनदत्त उनके व्यवसाय की देखभाल करने लगा । यदा-कदा वह सेठ के घर भी जाता । सेठ के घर जाना धनदत्त के मन में मैल का कारण बन गया । शीलवती की रूप-राशि पर वह मोहित हो गया। एक दिन अवसर देखकर उसने अपने मन के दुर्भाव शीलवती के समक्ष प्रगट कर दिए। पति-मित्र के ऐसे दुर्भाव जानकर शीलवती को हार्दिक कष्ट हुआ। उसने कठोर शब्दों में धनदत्त का तिरस्कार कर दिया और अपने घर पर उसके आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस घटना से धनदत्त का मन ईर्ष्या भाव से भर गया। साथ ही उसे यह भय भी सताने लगा कि शीलवती द्वारा सेठ के समक्ष उसकी वास्तविकता प्रगट कर दिए जाने पर सेठ उस पर क्रोध करेंगे और संभव है उसे दण्ड भी दें । भय और आशंका से भरे धनदत्त ने एक षडयन्त्र रचा और उसके अनुसार उसने एक पत्र सेठ सुमनचन्द्र को लिखा । पत्र में उसने लिखा कि उनकी अनुपस्थिति में सेठानी स्वच्छन्दाचारिणी हो गई है, ऐसे में वे विदेश से शीघ्र ही स्वदेश पधारें । धनदत्त का पत्र पाकर सुमनचन्द्र का हृदय दग्ध हो गया। उन्हें अपनी पत्नी के पातिव्रत्य पर पूर्ण विश्वास था पर मित्र के कथन पर भी वह अविश्वास नहीं कर सकता था। वह विदेश से स्वदेश लौट आया। नगर प्रवेश किया पर नगर में पहुंचकर भी वह अपने घर नहीं गया और अपने उद्यान में ठहर गया। शीलवती पति के आकस्मिक आगमन से जहां हैरान थी वहीं पतिमिलन - पतिदर्शन के भाव से मुदित भी थी । उसने भोजन तैयार किया और द्वार पर बैठकर पति की प्रतीक्षा करने लगी। पर संध्या तक सेठ सुमनचन्द्र घर पर नहीं आए तो शीलवती ने अपनी विश्वस्त दासी को सेठ के पास उन्हें बुलाने भेजा । पत्नी की विश्वसनीय दासी से सेठ ने कहा, मैंने तुम्हारी स्वामिनी के चारित्र के सम्बन्ध में कुछ अन बातें सुनी हैं। जब तक मेरे मन का संदेह शल्य दूर नहीं हो जाता तब तक मैं घर में नहीं आऊंगा । दासी ने लौटकर सेठ का संवाद शीलवती को सुना दिया। इससे शीलवती को गहरा आघात लगा । पति की को उसने अपने लिए मृत्यु-तुल्य कष्ट माना । पर वह विदुषी थी। शीघ्र ही उसने अपने भावों पर अंकुश लगा लिया और संकल्प कर लिया कि जब तक उसके पति का संदेह शल्य दूर नहीं हो जाता, तब तक वह अपना मुख पति को नहीं दिखाएगी वर्षों पर वर्ष अतीत के गर्भ में विलीन हो गए। कहते हैं कि साठ हजार वर्ष बीत गए। पति-पत्नी एक ही नगर में थे। पर दोनों ने एक-दूसरे का मुख दर्शन नहीं किया। एक बार नगर में आचार्य धर्मघोष पधारे। सेठ भी आचार्य श्री के दर्शनों के लिए गए। शीलवती भी उपस्थित हुई । प्रवचनोपरान्त जब जनता अपने-अपने घरों को लौट गई तो सेठ सुमनचन्द्र ने मुनि श्री से पूछा, भगवन् ! हजारों वर्षों से मैं एक शल्य से बंधा हुआ हूं। कृपा कर उस शल्य से मुझे मुक्ति दीजिए और फरमाइए कि मेरे मित्र का कथन सच है अथवा मेरी पत्नी का पातिव्रत्य सच है ? आचार्य श्री ने फरमाया, सेठ ! तुम्हारी पत्नी का पातिव्रत्य सच है, वह परम शीलवती नारी है। • जैन चरित्र कोश ••• *** 676

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