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स्वीकार कर लिया परन्तु असली मां का हृदय दहल गया। उसने रोते हुए कहा - महारानी ! मुझे पुत्र नहीं चाहिए। यह इसे ही दे दीजिए पर इसे कटवाइए मत। न्याय हो चुका था । मातृहृदय की तड़प को पहचानकर रानी ने उसे उसका पुत्र दे दिया और नकली मां की भर्त्सना की । महारानी के न्याय को देखकर सब दंग रह गए। सभी ने इसे भावी पुत्र का प्रभाव माना । फलतः भगवान के जन्म लेने पर उनका नाम सुमतिनाथ रखा
गया।
युवावस्था में सुमति का अनेक राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण कराया गया। पिता ने उन्हें राजपद प्रदान किया। लम्बे समय तक सुमतिनाथ ने राज्य का संचालन किया। बाद में प्रव्रजित होकर कैवल्य साधकर तीर्थंकर पद पाया। तीर्थ की स्थापना कर उन्होंने जगत कल्याण का महायज्ञ प्रारंभ किया। अन्त में सम्मेदशिखर पर्वत से प्रभु ने निर्वाण पद प्राप्त किया । -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र
सुमति मंत्री
रत्नपुरी का मंत्री । (देखिए -रत्नशिखर)
सुमतिसागर मुनि
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भूत, भविष्य और वर्तमान को अपने ज्ञानबल से देखने में समर्थ एक मुनि । स्वाध्याय, ध्यान और तप की निरन्तर साधना से मुनि आंखें मूंद कर भूत और भविष्य को अक्षरशः देख लेते थे। एक बार वे भिक्षा के लिए एक युवा क्षत्राणी के द्वार पर गए जो आंसुओं में डूबी गृहद्वार पर बैठी थी । उसे देखकर मुनि का हृदय करुणा से भीग गया और उन्होंने उसके आंसुओं का कारण पूछा। युवा क्षत्राणी जिसका नाम सुभामा था ने बताया, महाराज! मेरे पति छह मास से युद्ध में गए हैं। तब से उनकी ओर से कोई सूचना नहीं है। यही मेरे आंसुओं का कारण है। मुनि ने आंखें मूंदी और वस्तुस्थिति को जानकर बोले, सुभगे ! तुम्हारा पति विजयश्री का वरण करके कल दोपहर से पहले ही लौट आएगा ।
सुभामा गद्गद बन गई। उसने पति आगमन की प्रसन्नता में पूरा घर साफ किया, शैया सजाई और शृंगार करके सांकेतिक समय से पूर्व ही द्वार पर आ बैठी। उसका पति आया। पत्नी को सुशृंगारित देखकर वह दुराशंका से ग्रस्त बन गया। उसकी भृकुटी टेढ़ी हो गई । उसने पत्नी से गरज कर पूछा कि वह किसकी प्रतीक्षा में शृंगार किए बैठी है। सुभामा पति का प्रचण्ड रूप देखकर क्षणभर के लिए सहम गई। पर उसके हृदय में पाप का कण भी नहीं था इसलिए वह भयभीत नहीं हुई। उसने मुनि की भविष्यवाणी की बात उसे बताई और स्पष्ट किया कि मेरा शृंगार मेरे पति के लिए ही है ।
क्षत्रिय युवक को विश्वास नहीं हुआ। वह मुनि के पास पहुंचा और बोला, महाराज! तुमने ज्ञान बल से मेरा आगमन जान लिया, अब अपने ज्ञानबल से यह भी जानकर बताओ कि मेरी इस घोड़ी के गर्भ में बछेड़ा है या बछेड़ी? मुनि ने संदेह निवारण की दृष्टि से स्पष्ट कर दिया कि उसकी घोड़ी के गर्भ में बछेड़ा है । क्रोधान्ध क्षत्रिय ने तलवार के तीव्र प्रहार से घोड़ी का उदर चीर दिया। घोड़ी के उदर से बछेड़ा ही निकला जो क्षणभर बाद ही घोड़ी के साथ ही दम तोड़ गया। क्षत्रिय का संदेह निवारण हो गया । पर इस घटना से मुनि का अन्तरंग गहन पश्चात्ताप से पूर्ण बन गया । उन्होंने अपने आपको ही दो पञ्चेन्द्रिय जीवों की हत्या का दोषी माना। मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप आमरण अनशन कर लिया ।
पूरे घटनाक्रम में सुभामा ने भी अपने आपको दोषी माना। क्षत्रिय युवक ने भी पत्नी और मुनि के अपने संदेह के कारण स्वयं को दोषी माना। पति-पत्नी मुनि के पास पहुंचे और उनसे श्रावक-धर्म अंगीकार कर लिया ।
••• जैन चरित्र कोश -
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