Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 726
________________ एक बार सुलसा की समता की अनुशंसा देवराज इन्द्र ने की। एक देव परीक्षा की दृष्टि से मुनिवेश धारकर सुलसा के घर आया और लक्षपाक तेल की याचना की। सुलसा के इंगित पर उसकी दासी लक्षपाक तेल का घड़ा उठा कर लाई । देवमाया से दासी का हाथ कांपा और घड़ा गिर कर टूट गया । दासी कांपी। सुलसा ने उसे धैर्य देते हुए दूसरा घड़ा लाने को कहा। देव ने वह भी गिरा दिया। सुलसा ने तीसरा घड़ा मंगाया तो देव ने वह भी गिरा दिया। इस पर भी सुलसा के मस्तक पर शिकन न उभरी । मुनिवेशधारी देव ने कहा, मुझे खेद है जो मेरे कारण तुम्हें इतना नुकसान उठाना पड़ा। सुलसा बोली, नुकसान की कोई बात नहीं, मुझे चिन्ता इस बात की है कि मैं आपको इच्छित वस्तु न दे सकी। सुलसा की समता देख देव गद्गद हो गया। उसने प्रकट होकर देवराज द्वारा की गई उसकी प्रशंसा की बात कही और कहा कि वह मनोवाञ्छित वस्तु मांग ले। सुलसा ने पुत्र - प्राप्ति की बात कही । देवता ने सुलसा को बत्तीस गोलियां दीं और कहा, प्रत्येक गोली से उसे एक - एक पुत्र प्राप्त होगा । पर सुलसा तो बत्तीस नहीं एक ही पुत्र चाहती थी । इस विचार से कि बत्तीस लक्षणों वाला एक पुत्र हो जाए सुलसा ने सभी गोली एक साथ खा ली। कहते हैं कि एक साथ बत्तीस जीव सुलसा के गर्भ में आए। गर्भ बढ़ने के साथ-साथ सुलसा को असह्य उदरशूल होना स्वाभाविक था। आखिर उसने उसी देव का स्मरण किया और देव के उपाय से उचित समय पर बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया। देव ने कहा, ये सभी पुत्र एक ही साथ जन्मे हैं और एक ही साथ कालधर्म को भी प्राप्त होंगे। पुत्र जब शिक्षित-दीक्षित होकर युवा हुए तो महाराज श्रेणिक के अंगरक्षक नियुक्त हुए और चेलना-हरण के प्रसंग पर सुरंग के अंदर ही सभी एक साथ मृत्यु को प्राप्त हो गए। बत्तीस पुत्रों की एक साथ मृत्यु का समाचार सुनकर भी सुलसा चलित न हुई और अपने धर्म में और अधिक सृदृढ़ बन गई। एक अन्य घटना के परिप्रेक्ष्य में सुलसा की दृढ़धर्मिता के दर्शन होते हैं। अंबड़ नामक परिब्राजक भगवान महावीर का परमभक्त था। एक बार जब भगवान महावीर चम्पानगरी में विराजमान थे तो वह भगवान के दर्शनों के लिए गया । दर्शनों के पश्चात् वह लौटने लगा तो उसने भगवान से प्रार्थना की कि अवसर लगने पर प्रभु राजगृह पधारें। प्रभु ने अंबड़ से कहा, तुम राजगृह जा । वहां सुलसा नामक एक श्राविका रहती है। वह एक दृढ़धर्मिणी सन्नारी है । उसे धर्म संदेश कहें । प्रभु का धर्मसंदेश लेकर अंबड़ राजगृह आया । उसने विचार किया, जिस नारी की प्रशंसा स्वयं अरिहंत भगवान ने की है, उसकी महिमा देखनी चाहिए। अंबड़ के पास वैक्रिय लब्धि थी । लब्धि का उपयोग कर उसने ब्रह्मा का रूप धारण किया और वह पूर्व दिशा के नगर द्वार पर आकाश में अवस्थित हो गया। सभी नागरिक उसे ब्रह्मा भगवान मानकर उसके दर्शनों के लिए गए, पर सुलसा नहीं गई। दूसरे, तीसरे और चौथे दिन क्रमशः विष्णु, शिव और तीर्थंकर महावीर का रूप धरकर वह नगर के पश्चिम, उत्तर और दक्षिण द्वारों पर अवस्थित हुआ। सब उसके दर्शनों के लिए गए पर सुलसा न गई । अन्तिम दिन महावीर के रूप में अंबड़ सुलसा के घर पहुंचा और रोषारुण होकर उसने कहा, सुलसा! तुम मेरे दर्शन करने नहीं आई, क्या मैं महावीर नहीं हूँ ? सुलसा ने कहा, हां, तुम महावीर नहीं हो। अंबड़ ने पूछा, तुम ऐसा किस आधार पर कह रही हो ? सुलसा ने कहा, तुम्हारी आंखें क्रोध से लाल हैं, महावीर की आंखें लाल नहीं हो सकती । अंबड़ ने अपनी माया समेटी, सुलसा की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की और प्रभु का संदेश उसे दिया । सुलसा गद्गद बन गई। वह आयु पूर्ण कर स्वर्ग में गई । आगत चौबीसी में वह अमम नामक पन्द्रहवां तीर्थंकर होगी। - आवश्यक चूर्णि, पत्र सं. 164 ••• जैन चरित्र कोश *** 685 944

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