Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 713
________________ पिता और दादा की हत्या परशुराम ने की है तो उसके मन में प्रतिशोध की ज्वालाएं धधकने लगीं। परशुराम से बदला लेने के लिए वह हस्तिनापुर पहुंचा जहां परशुराम ने अपना अधिकार जमाया हुआ था। परशुराम को भी किसी नैमित्तिक ने बताया था कि उस द्वारा क्षत्रियों की दाढ़ाओं से भरा थाल जिस पुरुष के समक्ष आते ही खीर में बदल जाएगा वही पुरुष उसकी हत्या करेगा। अपने हत्यारे की खोज के लिए परशुराम ने एक उपक्रम किया था। उसने एक दानशाला खुलवाई थी और उसके द्वार पर क्षत्रिय-दाढ़ाओं से भरा हुआ थाल रखवा छोड़ा था। उसके गुप्तचर वहां तैनात रहकर उस पुरुष को पहचानने के लिए प्रतिक्षण तैयार रहते थे। परशुराम से प्रतिशोध लेने के लिए सुभूम हस्तिनापुर पहुंचा। वह दानशाला के बाहर से निकला तो उसकी दृष्टि पड़ते ही दाढ़ाओं से भरा थाल खीर से भरे थाल में बदल गया। सुभूम भूखा था। वह जिस सिंहासन वह थाल रखा था उसी सिंहासन पर बैठकर खीर खाने लगा। परशुराम को तत्क्षण सूचना दी गई। परशु लिए हुए परशुराम वहां पहुंचा और उसने सुभूम पर परशु से वार किया। पर परशुराम का पुण्य चुक चुका था। परशु सुभूम का कुछ भी अहित न कर सका। सुभूम के पास कोई शस्त्र न था। उसने उसी थाल को जिसमें उसने खीर खाई थी परशुराम पर फैंका। थाल ने चक्र का काम किया और परशुराम का सिर धड़ से अलग कर दिया। पर इतने से ही सुभूम सन्तुष्ट नहीं हुआ। परशुराम ने सात बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया था, उसी के अनुरूप सुभूम ब्राह्मण-जाति का शत्रु बन गया और कहते हैं कि उसने इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मण-हीन किया। भरतक्षेत्र के षडखण्डों पर विजय पताका फहराकर सुभूम चक्रवर्ती बन गया। पर इससे उसे सन्तुष्टि न हुई। उसने धातकी खण्ड के छह खण्डों पर भी विजय पताका फहराने का संकल्प किया। मंत्रियों और बुजुर्गों ने उसे बहुत समझाया, पर वह अहंकार ही क्या जो किसी की समझ को स्वीकार कर ले। सभी के कहे को असना कर सुभम ने अपनी विशाल सेना के साथ लवण समुद्र में अपना चर्मरत्न उतार दिया। नौका के रूप में चर्मरत्न लवण समुद्र की सतह पर तैरने लगा। कहते हैं कि एक हजार देवता चर्मरत्न के रक्षक होते हैं। पर जैसे-जैसे चर्मरत्न लवण समुद्र में आगे बढ़ा क्रमशः सभी देवताओं ने चर्मरत्न की सुरक्षा का दायित्व छोड़ दिया। तब भी चर्मरत्न लहरों पर तैरता रहा। सुभूम ने कहा, उसे धातकीखण्ड विजय के लिए देवताओं के सहयोग की अपेक्षा नहीं है। शूरवीरों को अपने बाहुबल पर भरोसा होता है, किसी के सहयोग पर नहीं। यह मेरे ही पुण्य पराक्रम का फल है कि देवताओं के असहयोगी होते हुए भी मेरा चर्मरत्न लवण समुद्र में आगे बढ़ रहा है। तब एक देवता ने प्रगट होकर कहा, यह तुम्हारा पुण्य पराक्रम नहीं है, बल्कि चर्मरत्न पर अंकित नवकार मंत्र की महिमा का फल है और उसी के बल पर यह चर्मरल पानी पर तैर रहा है। अहंकारी सुभूम ने अंकित नवकार मंत्र पर तलवार से वार किया जिससे चर्मरत्न में छिद्र बन गया। पलक झपकते ही सुभूम अपनी विशाल सेना सहित लवण समुद्र के गर्भ में समा गया और मरकर सातवीं नरक में गया। -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र 6/4 सुमंगल राजा ___ सुमंगल बसन्तपुर नगर के महाराज जितशत्रु की महारानी अमरसुन्दरी का अंगजात था। वह एक सर्वांग सुन्दर और तेजस्वी राजकुमार था। राजकुमार सुमंगल का एक मित्र था जिसका नाम सेनक था। सेनक मंत्री का पुत्र था और अपने नाम के अनुरूप ही कुरूप था। अपनी कुरूपता के कारण वह सभी जगह उपहास का पात्र बनता रहता था। राजकुमार सुमंगल भी सेनक का उपहास करता रहता था। इससे सेनक का हृदय गहन ग्लानि से भर गया। एक बार वह चुपके से अपने घर से निकल गया और तापसों के एक ... 672 ... ... जैन चरित्र कोश ....

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