Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 711
________________ रना कर दिया। परिणामतः उसे पति, सास और ननद की प्रताड़नाएं सहनी पड़ी। ये प्रताड़नाएं निरन्तर बढ़ती गईं। पर सुभद्रा इसे अपने कर्म फल के रूप में देखती और धर्माराधना में व्यस्त रहती। ___ सास और ननद सुभद्रा को लांछित करने के लिए अवसर की ताक में रहने लगी। एक दिन उन्हें यह अवसर इस प्रकार मिला-एक जिनकल्पी मुनि एक दिन भिक्षा के लिए सुभद्रा के द्वार पर आए। सुभद्रा ने भक्तिपूर्वक मुनि को आहार बहराया। आहार बहराने के पश्चात् सुभद्रा ने ऊपर देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि मुनि की आंख में तृण गिरा हुआ है। मुनि की आंख सूजी हुई थी और ठीक से खुल भी नहीं रही थी। सुभद्रा जानती थी कि जिनकल्पी मुनि किसी भी स्थिति में अपने शरीर की संभाल नहीं करते हैं। उसका हृदय करुणा से भर गया । उसने पूरे विवेक और कुशलता से मुनि का चेहरा अपने हाथों में पकड़ा और अपनी जीभ से मुनि की आंख में गिरा हुआ तृण निकाल दिया। ऐसा करते हुए सुभद्रा के ललाट की बिन्दी मुनि के मस्तक पर लग गई। इस दृश्य को सुभद्रा की सास और ननद ने देख लिया। उन्होंने गली, मोहल्ले और पूरे नगर में सुभद्रा का अपयश फैला दिया। मुनि के भाल पर लगी सुभद्रा की बिन्दी को उन्होंने अपनी बात के प्रमाण के रूप में लोगों को दिखाया। पूरे नगर में सुभद्रा और जैन धर्म का अपयश फैल गया। महासती सुभद्रा के लिए वे प्रलय के पल थे। वह अपने अपयश को तो सहन कर सकती थी पर जिनधर्म पर लगा कलंक वह सह न सकी। कुछ देर तो उसे कुछ न सझा। वह आंसओं और पीडा की प्रतिमा बनी रही। पर कौन था वहां जो उसे धैर्य देता? आखिर उसने अपने आत्मबल को जगाया। वह अपने कक्ष में चली गई। अखण्ड समाधि लगाते हुए और महामंत्र नमोकार को अपनी समाधि का सम्बल बनाते हुए उसने प्रण कर लिया कि जब तक उसके धर्म पर लगा कलंक धुल नहीं जाएगा वह समाधि नहीं खोलेगी। महासती नि रही। देवासन प्रकम्पित बन गए। और चौथे दिन जब चम्पापरी के लोग निद्रा से जागे तो उन्होंने अपने को अपनी ही नगरी में कैद पाया। नगर द्वार खोले से न खले। राजाज्ञा से मत्त हाथियों की टक्कर से भी द्वार न तोडे जा सके। परे नगर में भय व्याप्त हो गया। नगर द्वारों को खोलने का कोई उपाय किसी के पास न था। उस समय एक देववाणी हुई-नगर के द्वार तभी खुल सकते हैं जब कोई सती कच्चे सूत से चलनी बांध कर कुएं से जल निकाले और उस जल के छींटे द्वारों पर दे। राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि कोई सती आगे आकर इस कार्य को करे और नागरिकों का संकट मिटाए। जो सती ऐसा करेगी उसे राजकीय सम्मान दिया जाएगा। नगर के प्रमुख कुएं पर महिलाओं की भीड़ लग गई, पर कोई भी महिला कच्चे सूत से चलनी बांधकर कुएं से जल न निकाल सकी। कुआं चलनियों से भर गया। इससे सब ओर निराशा छा गई। उस समय महासती सुभद्रा ने अपनी सास से कुएं पर जाने की आज्ञा मांगी। सास ने सुभद्रा को जली-कटी सुनाई। परन्तु सुभद्रा को अपने शील पर पूरा भरोसा था। इस अवसर को उसने अपने धर्म की पवित्रता और उच्चता को सिद्ध करने का सुप्रसंग माना। वह पूरे आत्मविश्वास से कुएं पर पहुंची। नगर की महिलाएं सुभद्रा को कुएं पर देखकर उसका उपहास उड़ाने लगीं। पर किसी की बात की परवाह न करते हुए सुभद्रा ने कच्चे सूत के धागे से चलनी को बांधकर कुएं में उतार दिया। उसने गंभीर घोष पूर्वक घोषणा की-यदि मेरा शील अक्षुण्ण है और मेरा जिनधर्म सच्चा है तो मैं इस कार्य में सफलता प्राप्त करूं। - ऐसा कहकर सुभद्रा ने कच्चे सूत से बंधी चलनी को कुएं से बाहर खींचा। उपस्थित नगर-नरेश सहित हजारों नागरिक यह देखकर दंग रह गए कि सुभद्रा की चलनी जल से पूर्ण थी। सुभद्रा ने क्रमशः नगर द्वारों ...670 जैन चरित्र कोश ...

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