Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 707
________________ भगवान ने फरमाया, यह सुपात्रदान का सुफल है। सुबाहु कुमार पूर्वजन्म में हस्तिनापुर नगर का सुमुख नामक गाथापति था। वह श्रमणोपासक था और श्रमणों की सेवा भक्ति का विशेष ध्यान रखता था। एक बार उसने धर्मघोष स्थविर के शिष्य सुदत्त अणगार को अत्यन्त उच्च भावों से आहारदान दिया था। उसके अत्युच्च भावों से अभिभूत बनकर देवताओं ने उसके गृहांगन में साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं बरसाई थीं तथा पंचदिव्य प्रगट किए थे। परमोच्च भावों से दिए गए उस सुपात्र दान का फल आज भी सुबाहु कुमार भोग रहा है। इसीलिए यह अणगारों की भी प्रीति का पात्र है। अपने पूर्वभव की कथा सुनकर सुबाहु कुमार अति आनन्दित हुआ। उसने संसार त्याग कर आर्हती दीक्षा धारण कर ली। उत्कृष्ट चारित्र की आराधना करके वह प्रथम स्वर्ग में गया। भविष्य में महाविदेह क्षेत्र से निर्वाण पद प्राप्त करेगा। -सुखविपाक सूत्र -1 सुबाहु स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) चतुर्थ विहरमान तीर्थंकर। जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह की वपु विजय में वीतशोका नामक नगरी में प्रभु का जन्म हुआ। महाराज निषढ़ और महारानी सुनन्दा आपके माता और पिता हैं। यौवन वय में प्रभु का विवाह किंपुरुषा नामक राजकन्या से हुआ। तिरासी लाख पूर्व की आयु तक प्रभु ने राज्य किया। तदनन्तर प्रव्रजित बने। साधना से केवली बने। तीर्थ स्थापना कर तीर्थंकर बने। वर्तमान में प्रभु वपु विजय में धर्मोद्योत करते हुए विहरणशील हैं। प्रभु का पूर्ण आयुष्य चौरासी लाख पूर्व का है। (क) सुबुद्धि क्षितिप्रतिष्ठित नगर का रहने वाला एक सज्जन गृहस्थ । दुःसंयोग से उसकी मैत्री उसी नगर में रहने वाले दुर्बुद्धि नामक युवक से हो गई जो अपने नाम के अनुरूप ही दुर्बुद्धि और दुष्ट स्वभावी था। किसी समय दोनों मित्र व्यापार के लिए गए। वहां पर उनको भूमि में गड़ा हुआ खजाना मिल गया। उस खजाने को लेकर वे अपने नगर की दिशा में चल दिए। पर दुर्बुद्धि अपने स्वभाव वश उस धन पर अकेला ही अधिकार करना चाहता था। उसने युक्ति लड़ाते हुए सुबुद्धि से कहा कि हमें इस धन को वृक्ष की जड़ में छिपा देना चाहिए और समय-समय पर एक साथ मिलकर आवश्यकतानुसार धन ले लेना चाहिए। सरल हृदयी सुबुद्धि ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने आवश्यकतानुसार सौ-सौ स्वर्ण मुद्राएं अपने पास रखकर शेष धन को एक वृक्ष के मूल में छिपा दिया और नगर में आ गए। ___एक रात्रि में अवसर साधकर दुर्बुद्धि ने पूरा खजाना वृक्षमूल से निकाल लिया और अपने घर में लाकर छिपा दिया। कुछ दिन बीतने पर सुबुद्धि को धन की आवश्यकता पड़ी तो वह दुर्बुद्धि को साथ लेकर वृक्ष के पास पहुंचा, पर खोजने पर भी वृक्षमूल में धन प्राप्त नहीं हुआ। दुर्बुद्धि ने रोने-पीटने का स्वांग रचा और धन-अपहरण का दोषारोपण सुबुद्धि पर मढ़ दिया। दोनों में विवाद बढ़ा और बात राजा तक पहुंच गई। जब राजा भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया तो दुर्बुद्धि ने राजा को एक उपाय सुझाया, महाराज! मनुष्य रूप में तो मेरे पास ऐसा कोई गवाह नहीं है, पर स्वयं वह वृक्ष मेरी गवाही दे सकता है कि धन सुबुद्धि ने ही अपहरण किया है। इस बात पर सुबुद्धि भी सहमत हो गया कि यदि वृक्ष बोलेगा और वह जो निर्णय देगा वह उसे भी मान्य होगा। राजा ने दूसरे दिन वृक्ष से ही निर्णय कराने का आदेश देकर उन दोनों को विदा कर दिया। दुर्बुद्धि अपने घर पहुंचा। उसके पिता का नाम भद्र था जो स्वभाव से सरल था। दुर्बुद्धि ने जैसे-तैसे ... 666 .. - जैन चरित्र कोश ....

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