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और जगदेव के लिए देश-निर्वासन का वर मांग लिया। वचनवीर अनूपसिंह ने अपने वचनों का पालन किया और रणधवल को युवराज बना दिया तथा जगदेव को अपने राज्य से चले जाने को कह दिया। साथ ही पिता ने जगदेव को कहा, वह टोंक-टोंडा अवश्य जाए। जगदेव ससुराल पहुंचा। वहां कुछ दिन ठहरा और अपनी स्थिति स्पष्ट करके आगे बढ़ने को तत्पर हुआ। वीरमती भी उसके साथ जाने को तैयार हो गई। वीरमती और जगदेव दोनों ही कई गांव-नगरों में घूमते हुए पाटण पहुचे। वहां पर सिद्धराज सोलंकी का शासन था जो एक न्यायप्रिय राजा था। वीरमती को नगर के बाह्य भाग में बैठाकर जगदेव भोजन और आवास की व्यवस्था करने के लिए नगर में चला गया। __पाटण में मदनमंजरी नामक एक गणिका रहती थी जो प्रदेशिन युवतियों के शिकार के लिए सदैव चौकन्नी रहती थी। उसने वीरमती को बाग में एकाकी बैठे देखा तो दासी को भेजकर उसका मन्तव्य और परिचय प्राप्त कर लिया । उसके बाद वह स्वयं रथारूढ़ होकर और जगदेव की बुआ बनकर वीरमती के पास पहुंची। उसने अपने वाग्जाल में वीरमती को फंसा लिया और बोली, बेटी ! महलों में चलो ! महाराज सिद्धराज और जगदेव तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। सरल-हृदय वीरमती मदनमंजरी के वाग्जाल में फंस गई
और उसके साथ उसके घर चली गई। मदनमंजरी ने कोतवाल के पुत्र से पर्याप्त धन प्राप्त कर उसको वीरमती के कक्ष में भेजा। वीरमती के समक्ष स्थिति स्पष्ट हो गई कि वह दुश्चक्र में फंस गई है। उसने कोतवाल के पुत्र को युक्ति-युक्त वचनों से समझाया। पर उसके दुराग्रह को देखा तो वीरमती ने दुर्गारूप प्रकट कर कोतवाल-पुत्र पर छिपा कर रखी गई कटार से वार कर उसका वध कर दिया और उसके शव को बाहर फैंक दिया। कोतवाल-पुत्र के वध का समाचार कुछ ही देर में नगरभर में फैल गया। क्रोध और प्रतिशोध में जलता हुआ कोतवाल कई सैनिकों के साथ मदनमंजरी के भवन पर पहुंचा। वीरमती के कक्ष का द्वार बन्द था। कोतवाल के आदेश पर सैनिकों ने खिड़की से कक्ष में प्रवेश करना चाहा। पर जिसने भी वैसा किया वही वीरमती की कटार का शिकार बन गया। कोतवाल भी उसी प्रयास में मारा गया।
सिद्धराज सोलंकी तक बात पहुंची। उसने स्वयं उक्त स्थान पर पहुंचकर सती से उसका मन्तव्य पूछा। सती ने राजा को उपस्थित देखकर द्वार खोल दिया और समस्त घटनाक्रम सुना दिया। जगदेव भी वहां पर पहुंच चुका था। राजा के आदेश पर मदनमंजरी को गिरफ्तार कर लिया गया। राजा ने जगदेव और वीरमती का स्वागत किया और उनका आतिथ्य स्वीकार किया। पाटण के आबालवृद्ध के मुख से वीरमती की वीरता और सतीत्व के यशगान गूंज उठे।
सिद्धराज और जगदेव के मध्य प्रेम भाव निरंतर वर्धमान होता रहा। जगदेव की ही युक्ति से सिद्धराज ने पाटण में बलिप्रथा और जीवहिंसा पर प्रतिबंध लगाया।
उधर धारानगरी में रणधवल के उत्पात से प्रजा त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगी। आखिर महाराज अनूपसिंह ने जगदेव को आमंत्रित कर उसे राजपद प्रदान किया। जगदेव ने नीतिपरायणता से प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। जीवन के उत्तरार्ध भाग में जगदेव और वीरमती ने संयम-पथ पर चरण बढ़ा कर सद्गति प्राप्त की। वीर राजा
सोलहवें विहरमान तीर्थंकर श्री नेमिप्रभ स्वामी के जनक। (देखिए-नेमिप्रभ स्वामी) वीर श्रेणी
(देखिए-चित्रश्रेणी)। ... 568 .
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