________________
संयम लेने का उत्साह क्षीण नहीं हुआ। वह राजभवन एक कोने को ही अपनी साधनास्थली बनाकर भाव संयम का पालन करने लगा। वहीं पर रहकर उसने कठोर आचार का पालन किया । वह बेले- बेले का तप करता और पारणक आयंबिल से करता । दृढधर्म नामक श्रावक उसके पारणक के लिए गोचरी द्वारा विगय रहित आहार का अन्वेषण करता था । इस प्रकार शिवकुमार ने द्वादशवर्ष तक राजमहल के एक कोने में उत्कृष्ट भाव संयम और तपाचार की आराधना कर आयु पूर्ण की।
आयुष्य पूर्ण कर शिवकुमार पांचवें देवलोक में महर्द्धिक और महान तेजस्वी विद्युन्माली नामक देव बना । देवा पूर्ण कर वह राजगृह नगर में ऋषभदत्त श्रेष्ठी के पुत्र रूप में जन्मा जहां उसका नाम जंबूकुमार रखा गया। यही जंबूकुमार वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम केवली बने । (देखिए - जंबूकुमार)
(ग) शिव कुमार
रत्नपुर निवासी सेठ यशोभद्र और सेठानी शिवा का इकलौता पुत्र । यशोभद्र और शिवा अनन्य श्रमणोपासक और जिन धर्मानुरागी थे। नवकार मंत्र पर उनकी अविचल श्रद्धा थी । धन-धान्य भी उनके पास प्रभूत था। अधेड़ावस्था में उन्हें जिस पुत्र की प्राप्ति हुई उसी का नाम शिवकुमार था।
शिवकुमार का पालन-पोषण अत्यधिक लाड़-प्यार में हुआ । फलस्वरूप युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते शिवकुमार के जीवन में सातों कुव्यसन प्रवेश कर गए। माता-पिता ने पुत्र को सभी विधियों से समझाया पर सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। इससे सेठ बहुत उदास रहने लगा और बीमार हो गया। अपना अन्तिम समय जानकर सेठ ने पुत्र शिवकुमार को अपने पास बुलाया और कहा, पुत्र ! तुमने मेरी शिक्षाओं को सदैव उपहास में उड़ाया है। मुझे आशा है कि मेरी अन्तिम सीख को तुम सदैव स्मरण रखोगे ।
पिता की स्थिति से शिवकुमार का हृदय पिघल गया। उसने कहा, पिता जी ! आप की अन्तिम सीख क्या है, उसे आप कहें, उसे मैं सदैव स्मरण रखूंगा।
पिता ने कहा, पुत्र ! समस्त धर्मों, धर्मग्रन्थों और मंत्रों का सार नवकार मंत्र में रहा हुआ है। उसे तुम सदैव स्मरण रखना। इस मंत्र के स्मरण से तुम बड़े से बड़े कष्टों से भी मुक्ति पा सकते हो ।
अपनी बात पूर्ण करके यशोभद्र ने शिवकुमार को नवकार मंत्र स्मरण करवा दिया।
कुछ ही समय बाद यशोभद्र का निधन हो गया ।
पति विरह को शिवा भी सह नहीं सकी और वह भी चल बसी। माता-पिता के निधन के बाद शिवकुमार पूर्ण रूप से स्वच्छन्द हो गया। अपने दुर्व्यसनी मित्रों के साथ मिलकर उसने अपने पिता के समस्त धन को दुर्व्यसनों में उड़ा दिया। शीघ्र ही वह कंगाल हो गया । अन्न के कण-कण के लिए वह मोहताज हो गया । उसके दुर्व्यसनी मित्र भी उसका साथ छोड़ गए।
धन की चाह में शिवकुमार इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन जंगल में उसे एक त्रिदण्डी साधु मिला । शिवकुमार ने साधु के समक्ष अपनी दुरावस्था का कथन किया और प्रार्थना की कि उसे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे उसे पर्याप्त धन मिल सके।
त्रिदण्डी साधु मात्रवेश से ही साधु था । वस्तुतः वह एक पापात्मा परुष था और किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो सर्वांग पूर्ण और साहसी हो । शिवकुमार में उसे अपना इच्छित व्यक्ति दिखाई पड़ गया । उसने शिवकुमार को मधुर वाग्जाल में उलझाया और कहा, यदि वह उसके कथनानुसार कार्य करेगा तो उसे अकूत और शाश्वत धन की प्राप्ति होगी ।
••• जैन चरित्र कोश •
*** 583