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पाणिग्रहण हुआ। कालक्रम से विचित्रवीर्य को तीनों रानियों से तीन पुत्र प्राप्त हुए। अंबिका ने जन्मांध पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम धृतराष्ट्र रखा गया। अंबालिका के पुत्र का नाम पाण्डु और अंबा के पुत्र का नाम विदुर रखा गया।
विचित्रवीर्य काम भोगों में आत्यन्तिक रूप से आसक्त रहने के कारण क्षय रोग से ग्रस्त होकर अकाल में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया। जन्मांध होने के कारण धृतराष्ट्र ने राजपद अस्वीकार कर दिया। परिणामतः हस्तिनापुर के सिंहासन पर पाण्डु को आसीन किया गया। सत्यवती ने सदैव नीति का अनुसरण किया और भीष्म को भी पुत्रवत् स्नेह प्रदान किया।
-जैन महाभारत सदयवत्स
उज्जयिनी नगरी का युवराज, परम उदार, निर्भय और परदुख-कातर हृदयी युवक। उसमें एक ही दुर्गुण था-छूत का शौक। किसी समय युवराज ने मदोन्मत्त प्रधान हस्ती से एक सगर्भा स्त्री के प्राणों की रक्षा की, वैसा करते हुए उसे प्रधान हस्ती को मारना पड़ा। पुरस्कार-स्वरूप युवराज को देश निर्वासन का दण्ड भोगना पड़ा। प्रतिष्ठानपुर की राजकुमारी सावलिंगा युवराज की पत्नी थी। पत्नी ने भी पति का अनुगमन किया। सदयवत्स और सावलिंगा दोनों ने कई वर्षों तक देशाटन किया। उनके यात्रा पथ पर कई आरोह-अवरोह उपस्थित हुए। सदयवत्स ने अपने साहस से अनेक कष्ट क्षणों को सफलतापूर्वक पार किया। कई देशों की राजकुमारियों से उसने पाणिग्रहण भी किया। इस यात्रा में उसने कई बार अपनी उदारता का भी परिचय दिया। एक वीरान नगर को उसने अपने साहस और शौर्य से आबाद किया और वह वहां का राजा भी बना।
कई वर्षों तक देश, प्रदेश और विदेशों में भ्रमण कर वह सावलिंगा, अन्य अनेक परिणीताओं और विशाल ऐश्वर्य के साथ अपने नगर में लौटा। पिता को अपनी भूल का अहसास हो चुका था। उसने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाकर संयम का मार्ग चुना।
सदयवत्स उज्जयिनी का एक आदर्श राजा सिद्ध हुआ। उसने अनेक वर्षों तक न्याय और नीतिपूर्वक प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। एक मुनि का उपदेश श्रवण कर उसने और सावलिंगा आदि उसकी रानियों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया और जीवन भर एकनिष्ठ भाव से श्रावक धर्म का पालन किया। देहोत्सर्ग करके सदयवत्स स्वर्गलोक में गया। आगे के भवों में वह सर्व कर्म विमक्त बनकर मोक्ष में जाएगा। सनत्कुमार (चक्रवर्ती)
प्रवहमान अवसर्पिणी कालचक्र के चतुर्थ चक्रवर्ती और देवदुर्लभ सौन्दर्य के स्वामी पुरुष। हस्तिनापुर नरेश अश्वसेन उनके जनक थे और महारानी सहदेवी उनकी जननी थी। पिता की मृत्यु के पश्चात् सनत्कुमार राजा बने और षडखण्ड को साधकर चक्रवर्ती सम्राट् कहलाए।
सनत्कुमार का रूप ऐसा अद्भुत था कि एक बार देवताओं के अधिपति इन्द्र ने अपने मुख से देवसभा में उनके रूप की भूरि-भूरि प्रशंसा की। दो देवता सनत्कुमार का रूप देखने के लिए धरती पर आए। उस समय सनत्कुमार स्नान करने की तैयारी कर रहे थे। ब्राह्मणों के वेश में देवता उनके पास पहुंचे और उनका रूप देखकर दंग रह गए। उनके मुख से 'अहो रूपं' शब्द निकला। अपने रूप की प्रशंसा होते देख चक्रवर्ती को अच्छा लगा। उन्होंने कहा, अभी क्या देखते हो, तब देखना जब वस्त्राभूषणों से सज्जित बनकर मैं राज्यसिंहासन पर बैठू। ... जैन चरित्र कोश ...
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