Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 662
________________ समन्तभद्र (आचार्य) दिगम्बर जैन परम्परा के एक विद्वान जैन आचार्य। श्वेताम्बर परम्परा में जो स्थान आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का है, दिगम्बर परम्परा में वही स्थान आचार्य समन्तभद्र का है। समन्तभद्र जन्मना क्षत्रिय थे। वे उरगपुर नरेश के पुत्र थे। मुनिधर्म में प्रव्रजित होकर अध्ययन रुचि और प्रखर मेधा के बल पर वे विद्वद्वर्य बने। वे वादकुशल आचार्य थे। उनके प्रबल तर्कों और युक्तियों के समक्ष प्रतिद्वन्द्वी ठहर नहीं पाते थे। वे भारत भर में विश्रुत थे। कहते हैं कि समन्तभद्राचार्य को एक बार भस्मक रोग हो गया था। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति जो भी भोजन करता है वह शीघ्र ही भस्म हो जाता है, और रोगी निरन्तर क्षुधातुर रहता है। इस रोग के निदान के सभी उपाय व्यर्थ सिद्ध हुए। आखिर गुरु के आदेश से समन्तभद्र को वेश परिवर्तन करके काफी समय रहना पड़ा। समन्तभद्र ने जाना कि-काशीनरेश शिवकोटि शिवभक्त हैं और उनके आदेश से शिवालय में षडरस युक्त नैवेद्य पर्याप्त मात्रा में चढ़ता है। समन्तभद्र काशी नरेश के पास पहुंचे और उसे अपने पाण्डित्य से प्रभावित करके शिवालय में पुजारी बन गए। पर्याप्त सरस भोजन की नियमित प्राप्ति से समन्तभद्र का रोग उपशान्त होने लगा। किसी ने राजा से समन्तभद्र की चुगली कर दी कि नैवेद्य का भोग वे स्वयं खाते हैं। राजा ने गुप्त रूप से अपने अनुचर मंदिर में तैनात कर दिए। विचक्षण समन्तभद्र ने वस्तुस्थिति को भांप लिया। वे बैठकर जिनदेव की स्तुति करने लगे। राजा ने स्वयं उपस्थित होकर उन्हें धमकी दी, पर उन्होंने अपनी स्तुति को बन्द नहीं किया। भगवान चन्द्रप्रभ की स्तुति क्रम प्रारंभ होते ही शिव पिण्डी से प्रभु चन्द्रप्रभ की स्वर्णमयी प्रतिमा प्रगट हुई। इससे राजा और अन्य दर्शक चकित हो गए। प्रभु वर्धमान पर्यंत स्तुति पाठ पूर्ण कर समन्तभद्र ने अपनी समाधि मुद्रा को विराम दिया। राजा शिवकोटि आचार्य समन्तभद्र का भक्त बन गया। आचार्य श्री ने उसे जिनत्व का अमृतपान कराके जैन उपासक बनाया। बाद में समन्तभद्र आलोचना-प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि करके संघ में लौट आए। आचार्य समन्तभद्र को स्याद्वाद का प्रखर और सूक्ष्म व्याख्याकार माना जाता है। उनकी रचनाओं में इसकी पुष्टि भी होती है। उन्होंने पर्याप्त साहित्य सृजन किया। देवागम स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र, युक्त्यनुशासन आदि उनकी कृतियां हैं। उनका 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' श्रावक धर्म का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। __ आचार्य समन्तभद्र किसके शिष्य थे, ऐसा स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। उनके समय के बारे में भी विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत हैं। अधिकांश विद्वानों के मत में वे वि. की छठी शताब्दी के आचार्य थे। समन्तभद्राचार्य एक प्राचीन जैन आचार्य । (दखिए-अरविन्द राजा) समर केसरी नन्दनपुर नरेश । (दखिए-स्वयंभू वासुदेव) समरादित्य केवली समरादित्य उज्जयिनी नगरी के महाराज पुरुषसिंह के पुत्र थे। वे पूर्व जन्मों के उत्तम संस्कारों को साथ लेकर जन्मे थे। बचपन से ही वे क्षमामूर्ति, करुणावान, विचारशील, विनयी, विवेकी और विरल आध्यात्मिक गुणों के कोष थे। उपशम और शान्ति के वे अवतारी पुरुष थे। अतीत के आठ भवों से वे उपशम की साधना करते आए थे। विगत आठ भवों में एक जीव ने उनकी समता की पुनः-पुनः परीक्षा ली, प्रत्येक भव में उस ... जैन चरित्र कोश... - 621 ...

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