________________
जीव ने विभिन्न रूपों में उन्हें कष्ट दिए और प्रत्येक भव में उनकी हत्या की, पर उन्होंने सदैव उसे क्षमा किया। वह जीव आग उगलता रहा और समरादित्य का जीव प्रत्येक बार उस आग में जलकर भी उपशम को साधता रहा ।
वैर परम्परा वर्तमान से आठ भव पूर्व-अर्थात् नवम भव में उस समय शुरू हुई थी जब समरादित्य का जीव क्षितिप्रतिष्ठित नगर का युवराज था। उसका नाम था गुणसेन । गुणसेन समस्त कलाओं में पारंगत रूप और गुण सम्पन्न युवक था। उसमें असंख्य गुण थे, पर एक अवगुण भी था। वह अवगुण था-कौतुकप्रियता, उपहास्यों को उपहास-पात्र बनाने में उसे विशेष आनन्द आता था। उसी नगर में अग्निशर्मा नामक एक ब्राह्मण-पुत्र रहता था। पूर्व जन्म के पाप-कर्मों के कारण वह विद्रूपता का जीवन्त पर्याय था। युवराज गुणसेन अग्निशर्मा की विद्रूपता का दिल खोलकर उपहास उड़ाता। एक बार तो युवराज ने सभ्यता की सीमाओं को लांघकर अग्निशर्मा को उपहासित किया। उसने अपनी मित्रमण्डली के साथ मिलकर अग्निशर्मा को जूतों की माला पहनाकर और गधे पर बैठाकर नगर में उसका जुलूस निकाल दिया। प्रगट रूप से तो अग्निशर्मा हंसता रहा, पर इस अकारण अपमान ने उसकी आत्मा को कचोट लिया। वह कौडिन्य ऋषि के आश्रम में जाकर तापसी प्रव्रज्या धारण कर कठोर तप करने लगा। उसके कठोर तप से थोड़े समय में ही दूर-दूर तक उसकी ख्याति फैल गई। वह एक-एक मास के उपवास करता और एक घर पर ही पारणा करता । पारणे में जो मिलता उसी से सन्तुष्ट बनकर वह पुनः एक मास का उपवास ग्रहण कर लेता।
उधर युवराज गुणसेन क्षितिप्रतिष्ठित नगर का राजा बन गया। राज्य का दायित्व कंधों पर धारण करते ही उसके जीवन का एकमात्र दुर्गुण-कौतुकप्रियता भी दूर हो गया। वह सागर के समान गंभीर हो गया। एक दिन उसने भी अग्निशर्मा की तपस्विता की प्रशंसा सुनी। वह उसके दर्शनों के लिए गया। उसने पूर्व-उपहासों के लिए अग्निशर्मा से क्षमापना की और प्रार्थना की कि मासोपवास का पारणा वह उसके महल पर करे। अग्निशर्मा ने सहज रूप से स्वीकृति प्रदान कर दी।
पारणे के दिन अग्निशर्मा राजमहल के द्वार पर पहुंचा। पर संयोग ऐसा बना कि गुणसेन यह भूल ही गया कि उसने तापस अग्निशर्मा को आमंत्रित किया है। तापस को द्वार से ही बिना भोजन किए लौट जाना पड़ा। तापस के लौट जाने पर राजा को अपने आमंत्रण की स्मृति जगी। पहरेदारों से उसे ज्ञात हो गया कि तापस आया था और बिना पारणा किए ही लौट गया है। उससे गुणसेन को भारी अनुताप हुआ। वह तापस के पास पहुंचा और अपनी भूल के लिए पश्चात्ताप करने लगा। सच्चे हृदय से उभरे पश्चात्ताप के भाव को अग्निशर्मा ने पहचान लिया और राजा को क्षमा कर दिया। राजा ने भाव भरे हृदय से दूसरे मास के पारणे के लिए अग्निशर्मा से प्रार्थना की, जिसे उसने स्वीकार कर लिया। निर्धारित समय पर द्विमासिक तप के पारणे के लिए तापस महल के द्वार पर पहुंचा। पर कर्मों की विचित्रता अपना खेल खेल रही थी। उस दिन गुणसेन को शिरःशूल हो गया और उसके कारण तापस के आमंत्रण का प्रस्ताव सभी की स्मृति से धुल गया। उस दिन भी तापस को निराहार ही लौटना पड़ा।
तापस के लौटते ही राजा का शिरःशूल शान्त हो गया। पर तापस के लौट जाने के संवाद ने राजा को अधीर बना दिया। किसी तरह राजा तापस को अपनी विवशता समझाने में सफल रहा और त्रैमासिक तप के पारणे की स्वीकृति तापस से ले ली। पर इस बार शत्रु राजा के आकस्मिक आक्रमण के कारण और राजा के युद्धक्षेत्र में चले जाने के कारण तापस का पारणा नहीं हो पाया। इस बार तापस अपने क्रोध पर अंकुश नहीं लगा पाया। उसके मन ने कहा , यह राजा मेरा उपहास कर रहा है, मुझे भूखों मार देने पर तुला है। ... 622
--- जैन चरित्र कोश ...