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यदि मेरे तप का कोई फल हो तो मैं इस राजा को मारने वाला बनूं।
शीघ्र ही शत्रु राजा युद्ध-क्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ। युद्ध से निवृत्त होने पर राजा को तपस्वी के पारणे की बात स्मरण हुई। वह शीघ्र ही तापस के पास गया। गहनतम पश्चात्ताप आंसू बनकर उसके नेत्रों से बहा, पर तापस ने उसे राजा का स्वांग ही माना । यहां से क्रोध और उपशम का विष और अमृत के रूप में द्वन्द्व प्रारंभ हुआ। प्रारंभ हुआ तो यह द्वन्द्व नौ भवों तक तब तक चलता रहा जब तक गुणसेन के जीव ने समरादित्य के भव में केवलज्ञान प्राप्त किया। अग्निशर्मा का जीव कभी पुत्र रूप में गुणसेन की हत्या करता तो कभी मातृरूप में पुत्र का वध करता। कभी उसने पत्नी के रूप में पति गुणसेन की हत्या की तो कभी भाई के रूप में उस का वध किया। प्रत्येक जन्म में अग्निशर्मा का जीव गुणसेन के जीव का अकारण वध करता रहा, उपकार और प्रेम का बदला अपकार और घृणा से देता रहा। अग्निशर्मा के जीव की क्रूरता प्रत्येक नए जीवन में प्रवेश करके सघनतम बनती रही। इसके विपरीत गुणसेन की करुणा, मैत्री और क्षमा सघनतम बनती रही। गणसेन ने कभी उसे अपने कष्ट का कारण नहीं माना। वह अपने कर्मों को ही अपने कष्टों का कारण मानता रहा।
नौवें भव में गुणसेन उज्जयिनी के युवराज समरादित्य के रूप में जन्मा। इस जन्म तक पहुंचते-पहुंचते उसका उपशम भाव चरम पर पहुंच गया। एक दिन युवराज समरादित्य जब वसन्तोत्सव के लिए नगर से बाहर उद्यान में जा रहा था तो एक रोगी, एक वृद्ध और एक मुर्दे को देखकर वह विरक्त हो गया। उसने संयम ग्रहण करने का महत्संकल्प कर लिया। राजा ने दो राजकुमारियों से समरादित्य का पाणिग्रहण कराया, पर प्रथम रात्रि में ही युवराज ने उन दोनों राजकुमारियों के हृदय परिवर्तन कर दिए। उसने उन राजकुमारियों के हृदय में अपने साथ ही प्रव्रजित होने की उत्सुकता और उमंग जगा दी। वैराग्य के बहते महानद में समरादित्य के पिता और माता भी बह चले। इस प्रकार एक साथ पांच विरक्तात्माओं ने दीक्षा धारण की।
युवराज से मुनि बने समरादित्य ने तप, त्याग और जिन-प्रवचनों से जिनशासन की महती प्रभावना की। एक बार वे उज्जयिनी नगरी के बाह्य भाग में स्थित उद्यान में पधारे। रात्रि में कायोत्सर्ग मुद्रा में लीन हो गए। उधर अग्निशर्मा के जीव ने भी मानव जन्म प्राप्त किया। उसका नाम गिरिसेन रखा गया। एक बार रात्रि में निशाचरी करते हुए गिरिसेन ने ध्यान-लीन मुनि समरादित्य को देखा तो पुरातन वैरभाव से उसका हृदय जलने लगा। तेल से आई करके कुछ पुराने वस्त्रों से उसने मुनि की देह को ढ़ांप दिया। तदनन्तर वस्त्रों पर अग्निकण फेंक कर वह अपने निवास पर चला गया। वस्त्रों के साथ-साथ मुनि की देह भी जलने लगी। पर मुनि तो वीतराग अवस्था की भाव-भूमिका पर विहरणशील थे। देह ने रौद्र पीड़ा उगली पर मुनि की आत्मा उच्चता के अनन्त शिखरों तक साम्यभाव में उठ गई थी। कैवल्य से मुनि की आत्मा स्नात बन गई। दुंदुभियां बजाकर देवों ने समरादित्य केवली का कैवल्य-महोत्सव मनाया।
असंख्य भव्यों के लिए कल्याण का द्वार बनकर समरादित्य केवली सिद्ध हो गए।
अनुश्रुति है कि मात्र तीन श्लोकों में संगुंफित समरादित्य केवली के इंगितात्मक चरित्र को सुनकर हिंसा के रौरव बड़वानल में प्रवेश को उद्यत आचार्य हरिभद्र सूरि पुनः उपशम के उपासक हो गए थे। तब उन्होंने गद्गद भाव से भर दस हजार श्लोकों में 'समराइच्चकहा' ग्रन्थ का प्रणयन करके समारादित्य केवली के परम उपशम भाव की कीर्तिकथा कही और अपने प्रमोद भाव को अमर बना दिया।
-समराइच्च कहा (हरिभद्र सूरिकृत) - जैन चरित्र कोश ----
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