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शिवकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने त्रिदण्डी साधु के प्रत्येक आदेश को पूर्ण करने का वचन दिया।
त्रिदण्डी साधु ने शिवकुमार से कहा कि वह किसी अखण्ड शव की तलाश करके उसके पास लाए, उस शव को मन्त्र-साधना द्वारा स्वर्ण पुरुष में रूपायित किया जाएगा।
इधर-उधर भटक कर शिवकुमार ने एक अखण्ड शव खोज निकाला और उसे त्रिदण्डी साधु के पास पहुंचा दिया। त्रिदण्डी साधु ने शिवकुमार को आदेश दिया कि वह उस शव को श्मशान में ले चले और मन्त्र-साधना में उसका सहयोगी बने।
श्मशान में शव को रखा गया। चतुर्दशी की अन्धेरी रात थी। त्रिदण्डी साधु ने शव के हाथ में तलवार दे दी। शव के पैरों की ओर शिवकुमार को बैठने का आदेश देकर त्रिदण्डी साधु मन्त्रोच्चार करने लगा।
श्मशान का वातावरण अत्यन्त भयावह था। तेज हवाएं चल रही थीं। आसमान में बिजलियां कड़क रही थीं। बाह्य वातावरण और अंतःप्ररेणा से ही शिवकुमार को अनुभव हुआ कि त्रिदण्डी साधु उसके विरुद्ध षडयन्त्र रच रहा है। शनैः-शनैः उसका अनुमान विश्वास में बदलने लगा। वह मन ही मन भयभीत हो उठा। उसका भय बढ़ता गया। उसे साक्षात् मृत्यु दिखाई देने लगी। उस क्षण उसे उसके पिता द्वारा दिया गया महामंत्र स्मरण हो आया। वह एकाग्रचित्त से महामंत्र नवकार का स्मरण करने लगा। इससे त्रिदण्डी की मंत्र साधना में व्यवधान उत्पन्न हो गया। त्रिदण्डी ने दोगुने-चौगुने वेग से मन्त्रोच्चार किया। शव में वेताल प्रविष्ट हुआ।म
गा। महामंत्र के प्रभाव से वह शिवकमार का कछ भी अहित नहीं कर सका। अन्य लक्ष्य समक्ष न पाकर उसने त्रिदण्डी साधु को ही उठाकर हवन की ज्वालाओं में फेंक दिया। इससे त्रिदण्डी का अन्त हो गया और उसका शरीर स्वर्ण-पुरुष में रूपायित हो गया।
बाद में वेताल ने प्रगट होकर कहा, युवक! तुम महामंत्र के प्रभाव से जीवित हो, अन्यथा इस स्वर्णपुरुष के रूप में तुम्हारा शरीर होता। इस स्वर्ण पुरुष के अधिकारी अब तुम हो। इसे ले जाओ और इच्छित वैभव के साथ जीवन यापन करो।
शिवकुमार महामंत्र के प्रभाव से आत्यन्तिक रूप से प्रभावित हुआ। महामंत्र नवकार पर उसकी अविचल श्रद्धा हो गई। उसने दुर्व्यसनों से मुक्त जीवन जीने का संकल्प किया और प्राप्त अकूत वैभव को स्व-पर कल्याण में समर्पित किया। शिवभद्र
हस्तिनापुर नरेश शिव का पुत्र । (देखिए-शिव राजर्षि) शिव राजर्षि
महावीर कालीन हस्तिनापुर का राजा जिसने अपने पुत्र शिवभद्र को राजपाट सौंपकर तापसी दीक्षा स्वीकार की थी। उसने दीक्षित होते ही दो-दो दिन का उत्कट तप प्रारंभ किया और उत्कृष्ट क्रिया का पालन किया। परन्तु उसका यह तप और क्रिया सम्यक्त्व से शून्य थी। फिर भी तप का अपना एक विशिष्ट प्रभाव होता ही है जिसके फलस्वरूप शिवराजर्षि को विभंगज्ञान की प्राप्ति हो गई। उसे सात समुद्र और सात द्वीप दिखाई देने लगे। अपने उस ज्ञान के आधार पर उसने न केवल स्वयं को सर्वज्ञ घोषित कर दिया अपितु इस सिद्धान्त की स्थापना भी पूरे जोर-शोर से कर दी कि संसार में सात ही द्वीप और सात ही समुद्र हैं।
भगवान महावीर हस्तिनापुर पधारे। भगवान के प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी भिक्षा के लिए नगर में गए तो उन्होंने शिवराजर्षि की सर्वज्ञता और उनके सिद्धान्त की चर्चा सुनी। लौटकर उक्त चर्चा की बात उन्होंने ... 584 -
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