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श्रीपाल और चेतना ने श्रावकधर्म धारण किया। उच्च भावों से श्रावकधर्म का आराधन करते हुए वे दोनों ही भव्य जीव देवगति में गए। (क) श्रीमती
एक बुद्धिमती और आदर्श पतिव्रता नारी। श्रीमती नगर के कोटीश्वर सेठ सागदत्त की पत्नी थी। उसका रूप-सौन्दर्य अद्भुत था। एक बार वह अपने घर की छत पर टहलते हुए नगर-दर्शन कर रही थी। उधर नगर नरेश जितशत्रु भी अपने महल की छत पर चहल-कदमी कर रहा था। राजा की दृष्टि श्रीमती पर पड़ी। उसे देखते ही वह उस पर मोहित हो गया। श्रीमती ने राजा को अपनी ओर एकटक दृष्टि जमाए देखा तो वह छत से नीचे आ गई और गृहकार्य में संलग्न बन गई।
जितशत्रु राजा था और वह समझता था कि राजा होने से उसके राज्य की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति पर उसका अधिकार है। उसने श्रीमती को अपनाने का मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया। परन्तु वह वैसा कैसे करे इस बात का वह निर्णय नहीं कर पाया। उसने अपने प्रधान सुबुद्धि के समक्ष अपने कुत्सित भाव कहे। सुबुद्धि ने राजा को अनेक दलीलें देकर समझाने का प्रयत्न किया, पर कामान्ध को समझाना सहज नहीं होता है। विवश होकर मन्त्री ने राजा को यह उपाय बताया कि किसी न किसी बहाने से वह सागरदत्त को छह मास के लिए देशाटन पर भेज दे। सागरदत्त की अनुपस्थिति में श्रीमती को रिझाना कठिन नहीं होगा। राजा को मार्ग मिल गया। उसने सागरदत्त को दरबार में बुलाया और उससे कहा कि वह 'अचम्भे का बच्चा' लेकर आए। सागरदत्त सरल चित्त व्यक्ति था। उसने राजाज्ञा को शिरोधार्य कर लिया। घर जाकर उसने अपनी पत्नी से राजाज्ञा के बारे में बताया। श्रीमती बुद्धिमती थी। वह राजा के मन के भावों को ताड़ गई। उसने सागरदत्त से कहा कि वह राजा के पास जाए और देशाटन की अनुमति प्राप्त कर रवाना हो जाए। पर रात में ही लौट आए। उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। सागरदत्त को अपनी पत्नी की बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था। सो उसने वैसा ही किया जैसा श्रीमती ने कहा था।
राजा सागरदत्त को विदेश भेज कर मन ही मन अति प्रसन्न हुआ। उसने अपना मार्ग निष्कण्टक जाना और एक दूती को श्रीमती के पास भेजा । श्रीमती ने सुविचारित योजनानुसार राजा को रात्रि में आमंत्रित किया। उसने राजा के आगमन से पूर्व ही आवश्यक तैयारियां पूर्ण कर लीं। रात्रि में राजा आया। श्रीमती ने राजा का स्वागत किया। श्रीमती के कहने पर राजा ने राजसी वस्त्राभूषण उतार कर रख दिए। उसी समय श्रीमती के संकेत पर सागरदत्त ने द्वार पर दस्तक दी और पत्नी से दरवाजा खोलने के लिए कहा। सागरदत्त की आवाज सुनकर राजा के पांव तले की धरती खिसक गई। उसने श्रीमती से प्रार्थना की कि वह उसे कहीं छिपा दे। श्रीमती ने एक कोठरी का द्वार खोला और वहां रखे कुण्ड में राजा को छिपने के लिए कहा। राजा कुण्ड में बैठा तो वह किसी तरल पदार्थ (गोंद) से नख-शिख तक भीग गया। कुण्ड से बाहर निकल कर उसने श्रीमती से किसी उचित स्थान पर उसे छिपाने को कहा। एक अन्य कोठरी में श्रीमती ने उसे भेजा तो वहां ताजा पीनी गई रूई से राजा का पूरा शरीर ढ़क गया। तदुपरान्त श्रीमती ने एक पिंजरे में राजा को बैठाया और उसके द्वार पर ताला लगा दिया। सागरदत्त घर में आया तो श्रीमती ने उससे कहा, आप व्यर्थ ही भटक रहे हैं, 'अचंभे का बच्चा' तो घर में ही मौजूद है। कल इसे दरबार में ले जाना।
पिंजरे को घसीट कर सुबह सागरदत्त दरबार में ले गया। अचंभे के बच्चे को देखकर सम्पूर्ण नगर चकित हो गया। राजा को किसी ने पहचाना नहीं । आखिर मंत्री और सागरदत्त ने राजा के सम्मान की रक्षा .. 602 ..
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