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मैनासुन्दरी ने भी दीक्षा धारण करके आत्मकल्याण किया। -सिरि सिरिवाल कहा (रत्नशेखर सूरिकृत) (ख) श्रीपाल (श्रेष्ठी)
पोलासपुरी नगरी का रहने वाला एक धनी और धर्मात्मा श्रेष्ठी। उसकी पत्नी का नाम चेतना था जो पतिव्रता और धर्मरुचि संपन्न सन्नारी थी। दुर्दैववश एक बार श्रीपाल को व्यापार में ऐसा नुकसान हुआ कि उसके पास एक फूटी कौड़ी भी शेष न बची। उसे भोजन तक के लाले पड़ गए। ऐसे में उसकी पत्नी चेतना ने उसको धैर्य दिया और कहा कि वह उसके पीहर चला जाए, उसके भाई उसकी अवश्य ही सहायता करेंगे। श्रीपाल इस सत्य से भलीभांति परिचित था कि भाग्य के रूठने पर कोई साथ नहीं देता, फिर भी पत्नी का आग्रह उसने मान लिया। श्वसुर-नगर का मार्ग इतना लम्बा था कि तीन दिन की यात्रा के बाद ही वहां पहुंचा जा सकता था। श्रीपाल ने पाथेय तैयार करने के लिए पत्नी से कहा। चेतना ने देखा कि घर में तो अन्न का एक कण भी शेष नहीं है। पर उसने हिम्मत नहीं हारी। वह पास-पड़ोस से आटा-गुड़ उधार ले आई और उसने चार लड्डू बनाकर एक वस्त्र में बांधकर पति को थमा दिए।
श्रीपाल ने यात्रा प्रारंभ की। उसके भाव बने और उसने उपवास कर लिया। एक ग्राम में रात्रि बिताकर उसने दूसरे दिन की यात्रा प्रारंभ की। दूसरे दिन भी उसने पारणा नहीं किया और उपवास कर लिया। एक सराय में रात्रि विश्राम करके उसने तीसरे दिन की यात्रा शुरू की। दोपहर को वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करने लगा। बेले के पारणे के लिए उसने पाथेय निकाला। चढ़ते परिणामों से उसने भाव भाया, कितना शुभ हो कि कोई मुनि मेरे हाथ से आहार ग्रहण करे। उसकी भावना फलवती बनी और उधर से एक मासोपवासी मुनि गुजरे। मुनि अभिग्रहधारी थे और उनका अभिग्रह यही था कि कोई बेले तप का उपवासी यात्री पारणा करने बैठा हो और उसके पास चार ही लड्डू हों तो वे उसके हाथ से पारणा करें। मुनि ने ज्ञानोपयोग में अपने अभिग्रह को फलित होते देखा तो अपना पात्र श्रीपाल के समक्ष रख दिया। उमंगित भावों से श्रीपाल ने सुपात्र दान दिया। उसने चारों ही लड्डू मुनि को बहरा दिए। मुनि को विदा कर श्रीपाल स्वयं भी यात्रायित बना। संध्या समय श्वसुर-गृह के द्वार पर पहुंचा। परन्तु वहां पर उसका आदर-सत्कार नहीं हुआ। किसी ने उसे पानी तक के लिए नहीं पूछा।
जहां आदर नहीं, ऐसे द्वार पर ठहरना श्रीपाल ने उचित नहीं समझा। वह अपने नगर के लिए लौट चला। मार्ग में एक नदी थी। वहां पर उसने जल पीया। नदी तट पर रंग-बिरंगे पत्थर पड़े थे। उनको श्रीपाल ने एक थैले में भर लिया। उसका विचार था कि उन पत्थरों को बाटों के स्थान पर काम में लिया जा सकेगा। तीन दिनों की यात्रा के पश्चात् श्रीपाल घर पहुंचा। वह छह दिनों से निराहार था। घर पहुंचकर पत्नी को अथान्त कथा कह सुनाई। अपने भाइयों के निर्दय-व्यवहार पर चेतना को बड़ा कष्ट हुआ। तब उसने पति द्वारा लाए गए थैले को पलटा तो पति-पत्नी यह देखकर सुखद आश्चर्य से भर गए कि उनके समक्ष हीरे जवाहरात का ढेर लग गया था। दोनों ने इसे सुपात्र दान की महिमा का महाफल माना।
श्रीपाल का व्यवसाय पहले की अपेक्षा और भी बढ़ा-चढ़ा हो गया। नगर में उसकी प्रतिष्ठा भी पहले से अधिक बढ़ गई।
उधर समय ने पलटा खाया और श्रीपाल के श्वसुर पक्ष को व्यापारिक घाटा लगा। घर-द्वार बिक गए। वह परिवार श्रीपाल के द्वार पर पहुंचा। श्रीपाल ने अपने अनादर को भूलकर उस परिवार को भरपूर सहयोग
दिया।
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