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की राजधानी चम्पापुरी के महाराज सिंहस्थ का पुत्र था। उसकी माता का नाम कमलप्रभा था जो कोंकण देश के राजा वसुपाल की छोटी बहन थी। महाराज सिंहरथ के मंत्री का नाम मतिसागर था। वह महाराज का दाहिना हाथ समझा जाता था। श्रीपाल जब पांच-छह वर्ष का था तभी उसे पितृवियोग झेलना पड़ा और यहीं से उस राजकुमार के जीवन में कष्ट की काली रात्रि का आरम्भ हुआ। राज्य का अधिकारी तो श्रीपाल था पर उसके चाचा वीरदमन ने स्वयं राज्य सिंहासन हथिया लिया। इतना ही नहीं वह श्रीपाल को भी मौत के घाट उतारना चाहता था पर कमलप्रभा और मतिसागर की कुशलता से श्रीपाल की प्राणरक्षा संभव हो सकी। रात के अन्धकार में माता अपने पुत्र को लेकर जंगलों में निकल गई। वहां उसे सात सौ कोढ़ियों (कुष्ठ रोगियों) का एक दल मिला। रानी ने अपने पुत्र को उन कोढ़ियों के मध्य छिपा दिया। कुछ दिन कोढ़ियों के मध्य रहने से श्रीपाल को भी कुष्ठ रोग हो गया। श्रीपाल की माता कुष्ठ रोग की दवा खोजने के लिए यहां-वहां भटकने लगी। श्रीपाल भले ही छोटा था पर सभी कोढ़ी उसका विशेष मान करते थे और उसे उम्बर राणा कहकर पुकारते तथा अपना राजा मानते थे। बहुत वर्षों तक इधर-उधर भटकते हुए यह दल एक बार मालवदेश की राजधानी उज्जयिनी की सीमा पर पहुंचा। ___उस काल में उज्जयिनी नगरी पर प्रजापाल नाम का राजा राज्य करता था। सौभाग्य सुन्दरी और रूपसुन्दरी नामक उसकी दो रानियां थीं। दोनों रानियों की एक-एक पुत्री थी जिनके नाम क्रमशः सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी थे। राजा प्रजापाल अहंकारी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। वह अपने को ही अपना और अन्य सब का भाग्य नियंता मानता था। जो उसकी इस प्रवृत्ति का विरोध करता उसे वह दण्डित करता था। एक बार जब उसने स्वयं के भाग्यविधाता होने की बात कही तो उसकी बड़ी पुत्री सुरसुन्दरी ने तो उसका अनुमोदन किया पर मैनासुन्दरी ने विनम्रतापूर्वक पिता की बात काटते हुए कहा कि व्यक्ति स्वयं अपना भाग्य-विधाता होता है, उसके भाग्य का विधाता अन्य नहीं हो सकता है। अपनी ही पुत्री द्वारा अपना विरोध देखकर राजा तिलमिला गया। उसने अपनी बड़ी पुत्री सुरसुन्दरी का विवाह तो राजपरिवार में कर दिया और मैनासुन्दरी का विवाह कुष्ठ रोगी श्रीपाल से यह कहते हुए कर दिया कि देखता हूं तू अपने भाग्य का निर्धारण स्वयं कैसे करती है। मैनासुन्दरी ने इसे ही अपना भाग्य माना और वह उम्बर राणा (श्रीपाल) के कुष्ठमुक्त करने के उपाय पर चिन्तन करने लगी। आर्याओं के निर्देश पर उसने नवपद की आराधना की और अपने पति सहित सभी सात सौ कोढ़ियों को स्वस्थ बना दिया। सभी के शरीर कुन्दन की तरह दमकने लगे। कमलप्रभा भी अपने पुत्र को खोजती हुई वहां पहुंच गई। पुत्र और पुत्रवधू को देखकर वह आनन्दमग्न हो गई।
उसके बाद श्रीपाल ने विदेश यात्रा की। उसका भाग्य प्रभात के सूर्य की तरह निरन्तर तेजस्वी बनता गया। उसने अपने पुरुषार्थ और भाग्य के बल पर रैनमंजूषा, गुणमाला आदि सात राजकन्याओं से विवाह किया। साथ ही उसने एक विशाल चतुरंगिणी सेना का भी गठन किया। सदलबल वह उज्जयिनी नगरी में लौटा तो उसके श्वसुर प्रजापाल को अपनी भूल समझ में आ गई। उसका अहंकार गल गया। अपनी पुत्री मैनासुन्दरी का उसने विशेष आदर मान किया।
तदनन्तर श्रीपाल ने अपने चाचा वीरदमन पर आक्रमण किया। वीरदमन युद्ध में पराजित हुआ। उसने अपने किए पर पश्चात्ताप करते हुए मुनि-दीक्षा धारण कर ली।
श्रीपाल चंपा का अधिशास्ता बना। नौ सौ वर्षों तक उसने सुखपूर्वक राज्य किया। बाद में अपने ज्येष्ठ पुत्र त्रिभुवनपाल को राजपाट देकर मुनि धर्म में दीक्षित हुआ। विशुद्ध चारित्र की आराधना कर आयुष्य पूर्ण कर नौवें देवलोक में गया। वहां से नवें भव में सिद्ध होगा। ... 600 ..
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